अंतर्द्वंद्व


कशमकश में हूँ इन दिनों
समझ नहीं पाता स्वप्न है या यथार्थ
पहुँच जाता हूँ सोते-पढ़ते
ईसा मसीह, सुकरात या
गांधी के समय में।
पाता हूँ खुद को
जहर पीते या सूली पर चढ़ते
और घुटते ही दम
नींद खुल जाती है।
टटोलता हूँ सीने में
खून से सनी गोलियाँ
पर सुरक्षित पाकर भी खुद को
नहीं मिलती राहत
घेरे रहता है अवसाद।

भयानक हो चुका है
सभ्यता का विकास
सर्वाधिक खतरनाक मोड़ पर है
इन दिनों मनुष्यता
इन सब के बावजूद
जिये जा रहा हूँ मैं
बिना किसी प्रतिरोध के
सपने में इसी पर
होता हूँ शर्मिंदा।

भयानक तो यह है
कि गांधी को मारते हुए गोली
जीसस को सूली पर चढ़ाते
जहर पिलाते सुकरात को
खुद ही को पाता हूँ
खुद ही के सीने में
गोलियाँ भी लगती हैं
चुभती है सूली
घुटता दम जहर से।

अपने ही भीतर बैठा
दीखता है दुश्मन
कठिन है लड़ाई यह।

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