मनुष्यता बचाने के लिये


नहीं डॉक्टर, हैरान मत हो
नहीं पकड़ पायेंगी
तुम्हारी मशीनें इस घाव को
क्योंकि यह शरीर नहीं दिल पर है.
कितना अच्छा होता
अगर यह शरीर पर होते
कम से कम दवा तो मिल जाती!
नहीं होता अब किसी पर विश्वास
पर विश्वास के बिना जीना
सम्भव भी तो नहीं!
क्षुब्ध होता था पहले मैं
प्रकृति की निर्दयता पर
आती थी जब कहीं आपदा.
काँपता हूँ पर अब तो
देख कर मनुष्यों की क्रूरता.
हमने ही प्रकृति को
पत्थरदिल बना दिया!
नहीं डॉक्टर, ऐसे जीना सम्भव नहीं
काम नहीं करेंगी, तुम्हारी दवाइयाँ
बार-बार आऊँगा मैं
हत्यारे के सामने
ङोलूँगा वार तलवार के
धार ताकि भोथरी कुछ हो जाय
हो जाऊँगा खड़ा, बंदूक के सामने
ताकि कुछ गोलियाँ कम हो जायँ.
नहीं डॉक्टर,
दुश्मन नहीं हैं वे
मेरे ही साथी हैं
गए थे जो दुश्मनों से लड़ने को.
लड़ते-लड़ते लेकिन
दुश्मनों से ही वे भी बन गए
छीन लिये उनके भी हथियार
क्रूरता में उनसे भी बढ़ गए!
लगने लगे अब तो
दुश्मन भी मित्नों से.
सुनो डॉक्टर,
नहीं है समय यह इलाज का
करना ही होगा मुङो
प्रतिरोध अपनों का
रक्तरंजित होना होगा बार-बार
खत्म न हो जायँ उनके
हथियार जब तक
ङोलने ही होंगे मुङो
वार बार-बार
अपनों-परायों के.

मनुष्यता बचाने का
यही बस उपाय है.

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