आत्म संघर्ष-२
तरक्की तो हो रही है रोज-रोज
बाहर भी भीतर भी
शांति नहीं मिलती पर मन को
भटक गई सी लगती है
दिशा विकास की.
जितना ही बढ़ता हूँ आगे
खाई भी बढ़ जाती है
संगी-साथियों के बीच
पाता जिन्हें आसपास
अजनबी वे लोग हैं.
भेद तो लिया है चक्रव्यूह को
कहलाते लोग जो बड़े-बड़े
जान गया राज उनका
पहुँच गया आसपास
इस्तेमाल किये बिना
उनके हथियारों का.
चाहता बताना अब
अपने संगी-साथियों को
आगे बढ़ने का ठोस रास्ता
चाहिये जो इसके लिये
मेहनत भरपूर उनके पास है
जरूरत नहीं है छल-छद्म की
पोली होती है नींव जिसकी.
तोड़ते ही नहीं पर वे
दायरे को अपने
बना नहीं पाते हृदय को उदार
बुनियादी फर्क नहीं दीखता
उनके और बड़ों के बीच
मिल गई इन्हें जो धन-संपदा
भेद नहीं कोई रह जायेगा
इनके-बड़ों के बीच
अजनबी से ये भी बन जायेंगे.
चाहता हूँ इसीलिये
स्वेच्छा से लौटना
रास्ता बताना उन्हें
आगे बढ़ने का नया
ताकि आगे बढ़ कर वे
बन न जायँ उन्हीं बड़ों जैसे ही
खो न जाय उनकी भी मनुष्यता
महँगा है सौदा वह.
उतर नहीं पाता हूँ नीचे पर
पहले की तरह दु:ख-तकलीफों को
झेल नहीं पाता हूँ शिद्दत से.
बढ़ता हूँ जितना ही आगे
उतने ही दूर होते जाते संगी-साथी
भीड़ बढ़ती जाती अजनबियों की आसपास
बढ़ती जाती है बेचैनी भी साथ-साथ
इससे बचने का कोई
देता सुझाई नहीं रास्ता.
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