जीवंत कविता


करता था कोशिश जब
लिखने की कविता
भागती थी दूर वह
परछाईं सी आगे-आगे
छोड़ लेकिन पीछा जब
शुरू किया जीना तो
पीछे-पीछे रहती वह
हरदम परछाईं सी.
मिलते ही अब तो
फुरसत के पल-दो पल
लेते ही कापी पेन
लिखे चला जाता हूँ
रुकने का नाम ही अब
लेती नहीं कविता.
होड़ मची रहती है
आगे निकलने की
लिखने और जीने में.

जान गया हूँ अब यह
नाभिनालबद्ध है
जीवन से कविता
इसीलिये जीता हूँ
लिखने के पहले इसे
कविता सा बन गया है जीवन अब
हो गई है जीवंत कविता भी.

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