शुरुआत
धँस गए हैं पैर दुनियादारी में
उड़ गई है नींद, काँपते हैं पाँव
लौटने का है नहीं कोई विकल्प
साथ में है काव्य
रखना है पकड़ कस कर।
काँपते थे यों ही क्या
शुरुआत में बापू!
किया आरम्भ सत्याग्रह
नहीं पदचिह्न थे कोई
बस प्रार्थना सम्बल!
विस्मृत हो चुके हैं राम
नकली बन चुके हैं कृष्ण
रुचियों में हमारी ढल.
दिया आकार मनचाहा
कि कालातीत होने का उठाया फायदा
फिर भी कल्पना करता
कि काँपे तो जरूर होंगे
किया होगा शुरू जब रण।
कि तय करती रही होगी
जीवन की दिशा यह कँपकँपाहट
करता आज जब शुरुआत
पाता हूँ सभी को साथ
देती हैं मुुझे ढाढ़स
कहानी महापुरुषों की।
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