अनथक यात्रा


जरा सा ठहरता हूं सुस्ताने को
कि पानी सड़ने लगता है
दूषित होने लगता है मन
चूर हो चुका हूं थक कर
पर मंजूर नहीं है मलिन होना
चलते-चलते अगर मौत आनी है
तो यही सही
नहीं रुकूंगा कहीं
पार करता जाऊंगा जंगल पहाड़
और गहरी घाटियां
पर नहीं लूंगा विश्रम कहीं
कि जब नहीं ठहरता ब्रह्माण्ड पल को भी कहीं
तो मेरी भी यही नियति हो
कहीं न थमें पैर
मौत आने के पहले तक।
रचनाकाल : 9 मार्च 2020

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