बहुत दिनों से कहीं कुछ भेजा नहीं रोज लिखता हूँ एक घण्टे अच्छी खासी तैयार हो गई हैं रचनाएँ सोचता हूँ फिर भेजूँ पर पलटता हूँ जब डायरी के पन्ने कि कहाँ-कहाँ भेज चुका हूँ कौन-कौन सी रचनाएँ तो सहसा ही दिल बैठ जाता है। छह महीने पहले ही भेज चुका हूँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ अगर वही नहीं छपीं तो किस मुँह से भेजूँ दुबारा? याद आती हैं प्रख्यात कवि शुक्लजी की बातें कि डरती हैं पत्रिकाएं नयों को छापने में चोरी-चकारी बहुत चलती है आजकल कि पता नहीं कौन किसकी भेज दे अपने नाम से रचनाएँ। हाँ, एक बार छप गए अगर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तो आसान हो जाती है राह कि रचनाओं से ज्यादा मायने तुम्हारा परिचय रखता है। पर नहीं तोड़ पाता वही पहला चक्रव्यूह मैं और लगाता रह जाता चक्कर, बाहर ही बाहर। यद्यपि चाहूँ तो ले सकता हूँ प्रख्यात कवि की सिफारिश और बना सकता हूँ राह आसान पर कविता के माथे यह धब्बा सा लगता है और चुल्लू भर पानी में मन डूब मरता है नहीं, झेलना ही होगा मुझे- विश्वसनीयता का संकट देनी ही होगी बलि, अपनी रचनाओं की ताकि दूर हो सके मैल, छँट सके कालिमा पाक साफ हो सके, कविता का...