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Showing posts from January, 2021

महाभयावह रात

छंटा नहीं है घना अंधेरा फैली है निस्तब्ध शांति निद्रा में है लीन जगत मैं जाग गया हूं शायद समय से पहले ही खत्म अभी भी नहीं हुई है रात। मंजिल दूर, सफर लम्बा है जल्दी ही होगा सूर्योदय दूर क्षितिज में ध्रुवतारा यह देता है संकेत अगर अभी चल पड़े तभी शायद पहुंचेंगे मंजिल तक होने से पहले रात। लेकिन कोई नहीं जागता बेचैनी से टहल रहा मैं इधर-उधर करूं प्रतीक्षा सबकी या चल पड़़ूं अकेले असमंजस में इसी, बीतता समय लालिमा छाती नभ पर, ढलती जाती रात। चलते-चलते सबके, चढ़ आया है सूरज हूं भयभीत कि दोपहरी में जब बरसेगी आग कारवां नहीं पहुंच पायेगा विश्रामस्थल तब तक दूरी बढ़ती जायेगी जब साथ प्रकृति के होगा कैसा शुरू विनाश! नहीं किसी को फिक्र मगर खिलवाड़ कर रहे संग प्रकृति सब नियम तोड़ते नहीं जानते अबकी सूरज डूबेगा जब आने वाली है तब कैसी महाभयावह रात! रचनाकाल : 27 जनवरी 2021

अपराध-बोध

बेचैनी यह पता नहीं कैसी है? कुछ कहीं गलत हो रहा, हमेशा ऐसा लगता है दिखाई देती लेकिन साफ नहीं तस्वीर धुंधलका सा छाया हर तरफ चुनूं मैं राह कौन सी, समझ नहीं पाता हूं। चाहा था बनना कभी किसान मगर जब देखा शोषण बैलों का साहस तब नहीं जुटा पाया था केमिकल यूज कर धरती के शोषण का! हो गया भीड़ में शामिल, बन कर शहरी हिस्सा पाता हूं अब मैं भी बनकर पुर्जा गांवों और प्रकृति के संसाधन के दोहन का। चलती है रोटी-दाल मेरी अब ठीकठाक कतराता करने से विचार, पाता हूं जो मैं पैसा हिस्सा है वह किसके शोषण का! बेचैनी लेकिन बढ़ती ही जाती है बढ़ता जाता है अपराध-बोध क्यों हाथ सने ये खून से नजर आते हैैं? किसकी हत्या होती जाती है यह लगातार यह चीख सुनाई देती है मन में किसकी हे ईश्वर! क्या मैं पागल होने वाला हूं? रचनाकाल : 30 जनवरी 2021

स्मृतियों में खलनायक!

ऐसा तो कुछ खास नहीं था रंग दिनों में बचपन के पर ज्यों-ज्यों समय बीतता है स्मृतियां सुनहरी होती जाती हैैं जैसा भी था वह समय हमारा हाथ नहीं था उसमें कुछ पुरखों से मिली विरासत थी वह गढ़ा उसे था दादा-परदादाओं ने दुविधा में हूं यह सोच आज गढ़ रहे समय जो हम उसकी स्मृतियां सुनहरी होंगी क्या आगामी पीढ़ी के मन में! वर्चुअल खेल जो आज खेलते बच्चे उसको कैसे याद रखेंगे वे? आंचल विहीन मां की छवि को शिशु कैसे दर्ज करेगा अपनी स्मृतियों में! परिवार भरा-पूरा जो देख नहीं पाते उनकी स्मृतियां कैसे होंगी भला भरी-पूरी? बीतेगा तो यह समय मगर सोचता हूं कभी-कभी कि अपने बच्चों की स्मृतियों में हम खलनायक बनकर तो न कहीं रह जायेंगे? रचनाकाल : 28 जनवरी 2021

राजाओं का गणतंत्र

जब राजाओं का शासन था उद्देश्य सामने तो था तब संघर्षों के जरिये हमको ले आना है गणतंत्र गणतंत्रों के भीतर ही पर जब खाल ओढ़ कर राज करें राजे-महराजे, जन सेवक का वेश बना संघर्ष करूं किन लोगों से? वायरस बदल कर रूप बनाता स्ट्रेन नया ज्यों खतरनाक राजाओं ने भी बदल लिया है चोला बन कर जनसेवक हो चुके आज वे पहले से भी कई गुना ज्यादा घातक! जनता का शासन लाने को लड़नी है अभी लड़ाई बेहद कठिन उठाना है नकाब उन चेहरों से जो रूप बदल कर आये हैैं जो नाम बदल कर राजतंत्र का जारी रखे हुए हैैं शोषण जनता का निर्द्वंद्व! रचनाकाल : 26 जनवरी 2021

बदहवास समय में

पता नहीं क्या खो गया है छायी ही रहती है हमेशा बदहवासी सी भागता ही रहता हूं दिन भर इधर से उधर व्यस्तताएं बेहद हैैं मिलती पर फुरसत जरा भी जब तंद्रा से जैसे जाग उठता हूं सोचता हूं कहां हूं मैं कर रहा था काम क्या? आता नहीं कुछ भी समझ भागता पर जाता हूं भीड़ संग सुन्न से पड़े हैैं मनो-मस्तिष्क मशीनों के बीच में काम करता जाता हूं मशीन सा बीतते हैैं इसी तरह रात-दिन। कभी-कभी रात में या दिन में भी जाग उठता अचानक पर चौंक कर कोशिश करता हूं याद करने की कि भूल गया आखिर क्या? रचनाकाल : 22 जनवरी 2021

तरफदारी

भागता ही जा रहा है समय तेजी से शक्तियां भी खत्म होती जा रही हैं साथ में प्रतिरोध करने की नहीं ताकत बची सबकुछ बदलता जा रहा फिर भी है जब तक सांस निष्क्रिय रह नहीं सकता नकारात्मक दिशा में साथ सत्ताधारियों के बढ़ नहीं सकता कि जब तक खत्म ही हो जाय ना दम जूझता ही चला जाऊंगा निरंतर मायने रखता नहीं कितना बढ़ा आगे यही होगा बहुत मेरे लिये कोई कसर बाकी नहीं रक्खी करे जब फैसला इतिहास किसके पक्ष में था कौन मेरा नाम ना हो ताकि जुल्मी शासकों के पक्ष में। रचनाकाल : 21 जनवरी  2021

मूल्यों की खातिर

जानता था रस समूचा सोख लेता है मरुस्थल जो गुजरता पास से फिर भी अगर जिद थी कि रेगिस्तान को उपवन बनाना है मनोरम रस समूचा था अगर तैयार देने को फिर शिकायत क्यों कि मैं भी रेत ही में मिल गया! डूबता था जो, बचाने के लिये उसको अगर मैं कूदता हूं धार में बोझ से उसके अगर फिर डूब जाऊं मैं स्वयं क्या दोष है उस शख्स का! शक्तियां बेशक बहुत हैैंं अल्प मेरी चाहता लेकिन नहीं बचना किसी की भी मदद से मैं भले ही खत्म हो जाऊं मगर वे मूल्य जिंदा रहें जो इंसानियत के लिये हैैं अनिवार्य जिनके बिना धरती जिंदा रहने के नहीं रह पायेगी काबिल। रचनाकाल  : 19 जनवरी 2021

वीतराग

रात कठिन थी सपने बहुत भयावह थे पर छंट ही गया तिमिर आखिर कालिमा हो गई अस्त, उजाला फैल गया चहुंओर यादें तो मिटी नहीं हैैं उन दु:स्वप्नों की रह-रह कर कर अब भी विचलित वे करतीं मन को पर रुकती कोई चीज नहीं इस दुनिया में मैं भी सुस्ताना नहीं चाहता पल भर को कोशिश करता हूं समझ सकूं संकेतों को जो नियति चाहती है मुझसे करवाने की अब इच्छा कोई नहीं बची है निजी प्रकृति के साथ चाहता हूं होना लयबद्ध स्वार्थ मिट जाय बचे परमार्थ यही बस इच्छा है। छंट गया तिमिर अब भीतर-बाहर का सारा दुख-कष्टों से परिमार्जित होकर निरुद्विग्न अब जीवन पथ पर वीतराग हो, साथ प्रकृति के चलता जाता हूं। रचनाकाल : 18 जनवरी 2021

जिंदगी और उसके बाद

जिंदगी के शोरगुल से दूर मौत की विश्रांति में ही देखता है आदमी शायद कि धरती के बड़े इस मंच पर चल रहा है अनवरत नाटक निभाते लोग अपनी भूमिका कि जब भी रोल होता खत्म मर कर, मंच से नीचे उतर कर देखते नाटक, बने रह जाते हैैं दर्शक। शायद वहां उठती हो मन में हूक उनके काश! अपनी भूमिका को और ही कुछ रंग दे पाते वहीं गुण-दोष के अपने विवेचन का मिलता सभी को हो सही मौका! जिंदगी की तेज पर रफ्तार है इतनी नहीं है वक्त थोड़ा भी ठहर कर सोचने का मृत्यु थर्राती जरा सी देर को कुछ पल जरा गमगीन होते हैैं सभी फिर दौड़ पड़ते हैैं बिना जाने, कहां जाना है आखिर अंत में! रचनाकाल : 17 जनवरी 2021

मौत

मौत का विकराल देखा रूप कल दु:स्वप्न से भी था भयानक एक पल में हो गया था खत्म सबकुछ मिट गई रेखा हकीकत और मिथ्या की सोच कर ही कांपता हूं उस पिता की मन:स्थिति को छिन गया जिसका युवा बेटा हमेशा के लिये जीवन डराता रहेगा जिसको कि मां की भूलती ही नहीं है वह चीख मर्मांतक जिसे जीना पड़ेगा जिंदगी मर कर अचानक मायने कैसे बदल जाते निरर्थक एक पल में मौत कर देती सभी कुछ कुछ नहीं बचता सुनाने या कि सुनने के लिये शब्द हो जाते निरर्थक चीख रह जाती हमेशा के लिये बस गूंजती, ब्रह्माण्ड में होंठ थरथर कांपते हैैं प्रार्थना में हाथ जोड़े। रचनाकाल : 16 जनवरी 2021

संक्रांति बेला

रात बहुत लम्बी थी भयावह था सपना कोरोना का पस्त कर दिया जिसने तन-मन को लील गया कितने ही लोगों को। लेकिन अब छंट रहा है धुंधलका पूरब के क्षितिज पर आने लगी है नजर लालिमा खत्म होती जा रही है कालिमा होगा कुछ पल में ही सूर्योदय भर देगा फिर से जो जीवन को ऊर्जा से जिंदगी फिर चल पड़ेगी पहले सी। लेकिन यह बेला संक्रांति की करती है आवाहन करने की खातिर संकल्प यह फिर से न दोहरायें गलतियां अपनी सुख-सुविधा की हवस में फिर से न कर डालें तहस-नहस प्रकृति को फिर से न आये ताकि दु:स्वप्नों भरी रात झेलना न पड़े कोप प्रकृति का। रचनाकाल : 14 जनवरी  2021

मन की भाषा

बहुत नुकसान किया है मेरा वाणी ने मौन साधना चाहा मैंने मगर नहीं आसान रहा यह कभी समझना होता जाता है मुश्किल मन की भाषा को शब्दों में। अभिव्यक्त नहीं कर पाया मैं खुद को कभी सटीक हमेशा कहना चाहा जो भी उसका अर्थ लगाया अलग-अलग सब लोगों ने। चाहता साधना इसीलिये अब चुप्पी जो भी कहना हो अब कहे आचरण खुद मेरा। एकाग्र चित्त से चलता अपनी राह शांति छाती जाती भीतर-बाहर कुछ कहे बिना ही लोग समझते जाते अब मन की भाषा। रचनाकाल : 8 जनवरी 2021

डर लगता अपने आप से

खत्म हो चले हैैं अब समय और शक्ति दोनों दूभर हो चला आगे बढ़ना एक इंच भी चिड़चिड़ाहट होती है बढ़ती ही जा रही है कर्कशता गला जो सुरीला था बेहद कभी करता अब कोशिश जब गाने की निकलती आवाज फटे बांस सी बनता चला जाता हूं खुद से ही अजनबी लगता है भय अपने आप से दर्पण में रूप देख मासूमियत की जगह नजर आ रही ये कैसी कुटिलता? बचपन में जैसी थी दुनिया वैसी फिर से पाना चाहता हूं लेकिन अब इस पचपन की उम्र में हो गया खुर्राट मैं भी वैसा ही जैसी दुनिया से डर लगता था दुनिया से भाग कर लेता था शरण अपने भीतर पर कहां जाऊं भाग कर अब अपने ही आप से! रचनाकाल : 7 जनवरी 2021

बाधाओं के बीच

थक चुके हैैं पांव जंगल में भटकता जा रहा हूं रास्ता तो वही है जो महापुरुषों ने बताया था धुंधले बहुत हो चुके हैैं पदचिह्न लेकिन हो रहा दूभर उन्हें पहचानना शक्ति इतनी है नहीं अब चल पडूूं बीहड़ वनों के बीच से पथ बनाऊं नया उनके लिये जो आ रहे पीछे है कठिन यह फैसले की घड़ी लेकिन लौटना अब चाहता ही नहीं हालत में किसी भी जान रखता हूं हथेली पर बिना शक्तियों के ही बढ़ रहा आगे घिसट कर पार करता रास्ता अब इंच-इंच जब तक रुक नहीं जाऊं हमेशा के लिये उम्मीद है मन में कि मंजिल पा सकूंगा एक दिन रचनाकाल : 5 जनवरी 2021

शासन अपने ऊपर

छिपी रहें दुनिया से भले ही साफ नजर आतीं पर मुझको अपनी गलतियां रहता हूं उद्विग्न दण्ड नहीं देता जब तक गलतियों की खातिर अपने आप को कोशिश करता है कई बार मन खुद को बचाने की देता है सफाई अपने पक्ष में न्यायोचित नजर आयें ताकि अपनी गलतियां मन की इस चतुराई से धोखा कई बार खा भी जाता हूं अदण्डित रह जाता हूं। ठहरे हुए पानी जैसा सड़ने लगता पर जब मन होता है अहसास तब शीघ्र ही कहीं पर तो कमी कोई रह गई पक्षपात अपने साथ हो गया खींचता लगाम अपने मन की तब बेहद निर्ममता से सीमा से ज्यादा काम लेता शरीर से पहुंच जाता मौत की कगार तक मुश्किल से लौट पाता जहां से। चलती है इसी तरह लुकाछिपी मौत से करता हूं अपने ऊपर शासन निष्ठुरता से। रचनाकाल : 4 जनवरी 2021

अग्निस्नान

आग का दरिया धधक रहा है अग्निपरीक्षा देनी ही होगी सबको क्या होगा उसके बाद बचेगा कौन, कौन डूबेगा नहीं यह पता किसी को शर्त मगर है यही समर्पित किये बिना खुद को पार उतरेगा कोई नहीं। है मन में यही सुकून धधकता भीतर दावानल जो शायद शांत हो सके बाहर की ज्वाला से कचरा फैल चुका है इतना भीतर-बाहर, दुनिया में जरुरी है अब बेहद करना अग्निस्नान। मैं नहीं चाहता मैली दुनिया में जीना अवश्यम्भावी था अब प्रकृति दिखाये रौद्र रूप अपना यही कारण है स्वागत करता मैं विकराल काल का हरे हमारे भीतर-बाहर का तम सारा बचे बस स्वत्व निखालिस हम सबके भीतर का। रचनाकाल : 3 जनवरी 2021

कविता और मनुष्यता

इतनी तेज है समय की रफ्तार कि सोचा था स्थगित रखूंगा फुरसत मिलने तक लिखना पर बढ़ती ही जा रही है विकास की रफ्तार और क्रूर होता जा रहा है समय कविता को पीछे छोड़ देने से। इसलिए भागती-दौड़ती जिंदगी में दौड़ते-भागते हुए ही सही लिखना जारी रखना चाहता हूं कविता दिखाती रहे ताकि यह आइना बढ़ने न पाये भीतर क्रूरता कि खत्म हो गई अगर मनुष्यता तो बन जायेगा दुनिया का सबसे हिंसक प्राणी यह आदमी अंधी दौड़ में कथित विकास की दुनिया कर डालेगा तबाह यह। रचनाकाल : 30 दिसंबर 2020