महाभयावह रात
छंटा नहीं है घना अंधेरा फैली है निस्तब्ध शांति निद्रा में है लीन जगत मैं जाग गया हूं शायद समय से पहले ही खत्म अभी भी नहीं हुई है रात। मंजिल दूर, सफर लम्बा है जल्दी ही होगा सूर्योदय दूर क्षितिज में ध्रुवतारा यह देता है संकेत अगर अभी चल पड़े तभी शायद पहुंचेंगे मंजिल तक होने से पहले रात। लेकिन कोई नहीं जागता बेचैनी से टहल रहा मैं इधर-उधर करूं प्रतीक्षा सबकी या चल पड़़ूं अकेले असमंजस में इसी, बीतता समय लालिमा छाती नभ पर, ढलती जाती रात। चलते-चलते सबके, चढ़ आया है सूरज हूं भयभीत कि दोपहरी में जब बरसेगी आग कारवां नहीं पहुंच पायेगा विश्रामस्थल तब तक दूरी बढ़ती जायेगी जब साथ प्रकृति के होगा कैसा शुरू विनाश! नहीं किसी को फिक्र मगर खिलवाड़ कर रहे संग प्रकृति सब नियम तोड़ते नहीं जानते अबकी सूरज डूबेगा जब आने वाली है तब कैसी महाभयावह रात! रचनाकाल : 27 जनवरी 2021