संक्रांति बेला


रात बहुत लम्बी थी
भयावह था सपना कोरोना का
पस्त कर दिया जिसने तन-मन को
लील गया कितने ही लोगों को।
लेकिन अब छंट रहा है धुंधलका
पूरब के क्षितिज पर
आने लगी है नजर लालिमा
खत्म होती जा रही है कालिमा
होगा कुछ पल में ही सूर्योदय
भर देगा फिर से जो
जीवन को ऊर्जा से
जिंदगी फिर चल पड़ेगी पहले सी।
लेकिन यह बेला संक्रांति की
करती है आवाहन
करने की खातिर संकल्प यह
फिर से न दोहरायें गलतियां
अपनी सुख-सुविधा की हवस में
फिर से न कर डालें
तहस-नहस प्रकृति को
फिर से न आये ताकि
दु:स्वप्नों भरी रात
झेलना न पड़े कोप प्रकृति का।
रचनाकाल : 14 जनवरी  2021

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