बदहवास समय में
पता नहीं क्या खो गया है
छायी ही रहती है
हमेशा बदहवासी सी
भागता ही रहता हूं
दिन भर इधर से उधर
व्यस्तताएं बेहद हैैं
मिलती पर फुरसत जरा भी जब
तंद्रा से जैसे जाग उठता हूं
सोचता हूं कहां हूं मैं
कर रहा था काम क्या?
आता नहीं कुछ भी समझ
भागता पर जाता हूं भीड़ संग
सुन्न से पड़े हैैं मनो-मस्तिष्क
मशीनों के बीच में
काम करता जाता हूं मशीन सा
बीतते हैैं इसी तरह रात-दिन।
कभी-कभी रात में या दिन में भी
जाग उठता अचानक पर चौंक कर
कोशिश करता हूं याद करने की
कि भूल गया आखिर क्या?
रचनाकाल : 22 जनवरी 2021
Comments
Post a Comment