अपराध-बोध


बेचैनी यह पता नहीं कैसी है?
कुछ कहीं गलत हो रहा, हमेशा ऐसा लगता है
दिखाई देती लेकिन साफ नहीं तस्वीर
धुंधलका सा छाया हर तरफ
चुनूं मैं राह कौन सी, समझ नहीं पाता हूं।
चाहा था बनना कभी किसान
मगर जब देखा शोषण बैलों का
साहस तब नहीं जुटा पाया था
केमिकल यूज कर धरती के शोषण का!
हो गया भीड़ में शामिल, बन कर शहरी
हिस्सा पाता हूं अब मैं भी बनकर पुर्जा
गांवों और प्रकृति के संसाधन के दोहन का।
चलती है रोटी-दाल मेरी अब ठीकठाक
कतराता करने से विचार, पाता हूं जो मैं पैसा
हिस्सा है वह किसके शोषण का!
बेचैनी लेकिन बढ़ती ही जाती है
बढ़ता जाता है अपराध-बोध
क्यों हाथ सने ये खून से नजर आते हैैं?
किसकी हत्या होती जाती है यह लगातार
यह चीख सुनाई देती है मन में किसकी
हे ईश्वर! क्या मैं पागल होने वाला हूं?
रचनाकाल : 30 जनवरी 2021

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