डर लगता अपने आप से
खत्म हो चले हैैं अब
समय और शक्ति दोनों
दूभर हो चला आगे बढ़ना एक इंच भी
चिड़चिड़ाहट होती है
बढ़ती ही जा रही है कर्कशता
गला जो सुरीला था बेहद कभी
करता अब कोशिश जब गाने की
निकलती आवाज फटे बांस सी
बनता चला जाता हूं
खुद से ही अजनबी
लगता है भय अपने आप से
दर्पण में रूप देख
मासूमियत की जगह
नजर आ रही ये कैसी कुटिलता?
बचपन में जैसी थी
दुनिया वैसी फिर से पाना चाहता हूं
लेकिन अब इस पचपन की उम्र में
हो गया खुर्राट मैं भी वैसा ही
जैसी दुनिया से डर लगता था
दुनिया से भाग कर
लेता था शरण अपने भीतर पर
कहां जाऊं भाग कर अब
अपने ही आप से!
रचनाकाल : 7 जनवरी 2021
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