वीतराग
रात कठिन थी सपने बहुत भयावह थे
पर छंट ही गया तिमिर आखिर
कालिमा हो गई अस्त, उजाला फैल गया चहुंओर
यादें तो मिटी नहीं हैैं उन दु:स्वप्नों की
रह-रह कर कर अब भी विचलित वे करतीं मन को
पर रुकती कोई चीज नहीं इस दुनिया में
मैं भी सुस्ताना नहीं चाहता पल भर को
कोशिश करता हूं समझ सकूं संकेतों को
जो नियति चाहती है मुझसे करवाने की
अब इच्छा कोई नहीं बची है निजी
प्रकृति के साथ चाहता हूं होना लयबद्ध
स्वार्थ मिट जाय बचे परमार्थ
यही बस इच्छा है।
छंट गया तिमिर अब भीतर-बाहर का सारा
दुख-कष्टों से परिमार्जित होकर
निरुद्विग्न अब जीवन पथ पर
वीतराग हो, साथ प्रकृति के
चलता जाता हूं।
रचनाकाल : 18 जनवरी 2021
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