स्मृतियों में खलनायक!


ऐसा तो कुछ खास नहीं था
रंग दिनों में बचपन के
पर ज्यों-ज्यों समय बीतता है
स्मृतियां सुनहरी होती जाती हैैं
जैसा भी था वह समय
हमारा हाथ नहीं था उसमें कुछ
पुरखों से मिली विरासत थी वह
गढ़ा उसे था दादा-परदादाओं ने
दुविधा में हूं यह सोच
आज गढ़ रहे समय जो हम
उसकी स्मृतियां सुनहरी होंगी क्या
आगामी पीढ़ी के मन में!
वर्चुअल खेल जो आज खेलते बच्चे
उसको कैसे याद रखेंगे वे?
आंचल विहीन मां की छवि को
शिशु कैसे दर्ज करेगा अपनी स्मृतियों में!
परिवार भरा-पूरा जो देख नहीं पाते
उनकी स्मृतियां कैसे होंगी भला भरी-पूरी?
बीतेगा तो यह समय मगर सोचता हूं कभी-कभी
कि अपने बच्चों की स्मृतियों में हम
खलनायक बनकर तो न कहीं रह जायेंगे?
रचनाकाल : 28 जनवरी 2021

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