मूल्यों की खातिर
जानता था रस समूचा
सोख लेता है मरुस्थल
जो गुजरता पास से
फिर भी अगर जिद थी कि रेगिस्तान को
उपवन बनाना है मनोरम
रस समूचा था अगर तैयार देने को
फिर शिकायत क्यों कि मैं भी
रेत ही में मिल गया!
डूबता था जो, बचाने के लिये उसको
अगर मैं कूदता हूं धार में
बोझ से उसके अगर फिर डूब जाऊं मैं स्वयं
क्या दोष है उस शख्स का!
शक्तियां बेशक बहुत हैैंं अल्प मेरी
चाहता लेकिन नहीं
बचना किसी की भी मदद से
मैं भले ही खत्म हो जाऊं
मगर वे मूल्य जिंदा रहें
जो इंसानियत के लिये हैैं अनिवार्य
जिनके बिना धरती
जिंदा रहने के
नहीं रह पायेगी काबिल।
रचनाकाल : 19 जनवरी 2021
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