जिंदगी और उसके बाद
जिंदगी के शोरगुल से दूर
मौत की विश्रांति में ही
देखता है आदमी शायद
कि धरती के बड़े इस मंच पर
चल रहा है अनवरत नाटक
निभाते लोग अपनी भूमिका
कि जब भी रोल होता खत्म
मर कर, मंच से नीचे उतर कर
देखते नाटक, बने रह जाते हैैं दर्शक।
शायद वहां उठती हो मन में हूक उनके
काश! अपनी भूमिका को
और ही कुछ रंग दे पाते
वहीं गुण-दोष के अपने विवेचन का
मिलता सभी को हो सही मौका!
जिंदगी की तेज पर रफ्तार है इतनी
नहीं है वक्त थोड़ा भी ठहर कर सोचने का
मृत्यु थर्राती जरा सी देर को
कुछ पल जरा गमगीन होते हैैं सभी
फिर दौड़ पड़ते हैैं
बिना जाने, कहां जाना है आखिर अंत में!
रचनाकाल : 17 जनवरी 2021
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