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Showing posts from October, 2024

दीप बनने का सौभाग्य

होता जाता है जितना अंधेरा घना उतनी बढ़तीं दिये की जिम्मेदारियां हम न बन पायें सूरज भले ही मगर दीप नन्हा सा तो एक बन सकते हैैं अपने हिस्से का तम दूर कर सकते हैैं! सुख बहुत है उजाले में रहने का पर जब अंधेरा घना हो तो खुद को जला रौशनी थोड़ी फैलाने का सुख भी होता न कम कब शिकायत ये करता है कोई दिया उसको दिन का उजाला नहीं क्यों मिला! रात हिस्से में होना अगर भाग्य है सूर्य का अंश बनने का सौभाग्य है राम पैदा हुए देश में जिस कभी उसके वासी भी तो उनका ही अंश हैं! रचनाकाल : 1 नवंबर 2024

रावण-राज

इतने ज्यादा बुरे तो न थे हम कभी राम के पक्ष में खुद को रखते हुए पुतला रावण का हरदम जलाते रहे जो मिली थी विरासत में हमको दिशा तेज उन्नति उसी पथ पे करते रहे फिर ये किस खोह में आ गये आज हम घोंटती जाती दम गंध बारूद की क्यों है मंजर भयावह ये चारों तरफ दीखते खण्डहर, चिथड़े बिखरे हुए राह भटके कहां हम ये रावण के खेमे में कब आ गये? राम का तो कहीं है पता ही नहीं आती जाती घड़ी पास सर्वनाश की क्या बचाएगा अब हमको कोई नहीं खत्म सचमुच ही दुनिया ये हो जायेगी? रचनाकाल : 30 अक्टूबर 2024

महाविनाश जल्दी लाने की प्रकृति और इंसानों के बीच लगती होड़

 संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि दुनिया 3.1 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रही है. रिपोर्ट के अनुसार अगर सभी देश जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अपने मौजूदा वादों को पूरा करें तो दुनिया में तापमान वृद्धि 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित हो सकती है. हालांकि यह वृद्धि भी भयंकर गर्मी, तूफान और सूखे जैसे गंभीर प्रभावों को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन 3.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी में तो हम इंसानों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा!  जिस तबाही की आशंका जताई जा रही है, वह निकट भविष्य के गर्भ में ही है; परंतु इंसानी अस्तित्व को बचाने की चिंता किसे है? कुछ साल पहले कोरोना महामारी ने भी मानव जाति को दहला दिया था. तब कुछ महीनों के लॉकडाउन से ही प्रदूषित हो चुकी प्रकृति में अपूर्व निखार आ गया था. अगर वह महामारी प्रकृति की चेतावनी थी हम इंसानों के लिए कि अभी भी वक्त है, सुधर जाएं; तो शायद हमने इसकी बुरी तरह से अनदेखी की है. होड़ तो अब इसकी लगी है कि हम मनुष्यों का खात्मा प्राकृतिक आपदाएं करेंगी या उसके पहले हम खुद ही अपने पैरों पर कुल...

डर भीतर-बाहर का

रक्षा के मद में स्वाहा करना धन अपार दुनियाभर के देशों की मुझको नासमझी सी लगती थी हम न्याय-परायण रहें अगर तो हमला कोई हम पर करना चाहे तो दुनिया क्या यूं ही चुप बैठी रह जायेगी? पर जैसे-जैसे समझ बढ़ी रह गया देखकर यह अवाक्‌ अपनी-अपनी आंखों पर सब ही निहित स्वार्थ की पट्टी बांधे रहते हैं है उचित और अनुचित क्या यह वे हानि-लाभ से अपने ही तय करते हैं वरना तो कारण और नहीं था कोई भी हमको गुलाम सदियों तक अपना रखने को जायज ठहरा पाते अंग्रेज कहीं से भी हम भी अपने जैसे ही कुछ इंसानों को कह कर अछूत, बदतर उनसे व्यवहार कभी क्या कर पाते? इसलिये सभी मानव शायद हम दुनिया में एक-दूसरे से ही इतना डरते हैं अपने भीतर के निहित स्वार्थ का अक्स दूसरों में भी देखा करते हैं कारण शायद है यही मुख्य इस दुनिया में अन्यायों-अत्याचारों का क्या बुद्धिमान प्राणी सबसे इस दुनिया के हम न्याय-परायण जीव नहीं बन सकते हैं? रचनाकाल : 25 अक्टूबर 2024

दु:ख में सुख

मैं सामंजस्य बिठाता हूं जब तक विपरीत परिस्थिति से तब तक बाधाएं नई उपस्थित फिर से होने लगती हैं सुस्ता ही पाता नहीं कभी जीवन में कुछ पल खातिर भी। इस तरह रहा नाराज बहुत दिन ईश्वर से पर प्रौढ़ हुआ जब तो जाना ईश्वर का था उपकार बड़ा कितना ज्यादा सहकर उलाहना भी इतना हित, कौन किसी का करता है! दरअसल चाहता था मैं ठहरे पानी का डबरा बनना जीना अपने ही सेफ जोन में, कोई रिस्क नहीं लेना पर ईश्वर को था पता कि जीवन जीकर मैं आरामदेह कमजोर स्वयं को ही भीतर-बाहर से करता जाऊंगा रुक गया अगर जो एक जगह, धीरे-धीरे सड़ जाऊंगा इसलिये दूर होते ही बाधा एक, दूसरा संकट वह ला देता था मुझको कुम्हार के कुम्भ सरीखा पीट-पीटकर गढ़ता था। अब जान गया जब यह रहस्य, खुद ही तकलीफें सहता हूं ‘रमता जोगी बहता पानी’ सा तन-मन को गतिशील हमेशा रखता हूं जब सुख भोगा करता था तब बेचैन रहा करता था मन दु:ख के डर से अब दु:ख सहता जब स्वेच्छा से ऋषियों की त्याग-तपस्या सा सुख मिलता है तन-मन बनता मजबूत और निश्चिंत भाव से जीता हूं। रचनाकाल : 24 अक्टूबर 2024

बच्चे अधिक पैदा करने की अपील और बोझ बनते बुजुर्ग

 आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने लोगों से दो से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील की है, लेकिन इसे कोरी अपील न समझें. नायडू ने घोषणा की है, ‘‘सरकार केवल दो से अधिक बच्चों वाले लोगों को स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए पात्र बनाने के लिए कानून लाने की योजना बना रही है.’’ तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन तो उनसे एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों कदम आगे बढ़ गए और नवविवाहित जोड़ों से 16-16 बच्चे पैदा करने की अपील कर डाली. हालांकि उन्होंने इसके लिए अभी कोई कानून लाने की धमकी नहीं दी है. उनकी चिंता है, ‘‘हमारी आबादी कम हो रही है जिसका असर हमारी लोकसभा सीटों पर भी पड़ेगा इसलिए क्यों न हम 16-16 बच्चे पैदा करें.’’ जबकि नायडू का कहना है, ‘‘आंध्र प्रदेश और देश भर के कई गांवों में केवल बुजुर्ग लोग ही बचे हैं. युवा पीढ़ी शहरों में चली गई है.’’ उनकी दलील है  ‘‘अगर प्रजनन दर में गिरावट जारी रही, तो हम 2047 तक गंभीर वृद्धावस्था समस्या का सामना करेंगे, जो वांछनीय नहीं है.’’  नायडू जनसांख्यिकीविद्‌ नहीं हैं, लेकिन मुख्यमंत्री हैं और उनकी बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता. वे कहते ह...

वैयक्तिक और सामाजिक

चार जनों के बीच कहीं भी बैठ हांकना गप्प या कि सुनना उसको बर्बाद समय अपना करने सा लगता था महसूस मगर यह हुआ वजह से इसी रह गया दुनियादारी में सबसे कमजोर कि लगती गपशप व्यर्थ सरीखी जो उससे भी हम दुनियादारी की छोटी-छोटी बातें सीखा करते हैं। सामाजिक प्राणी मानव को दरअसल इसी से कहा गया एकाकी कोई रहे अगर तो बहुत दिनों के बाद समझ में आती है अपनी गलती हम मगर देखते हैं जब औरों की गलती तो खुद भी सीखा करते हैं। असमंजस लेकिन यह है सबको जीवन सीमित मिलता है यदि समय बिता दें सारा दुनियादारी में तो कब हम चिंतन-मनन अध्ययन-लेखन या फिर ध्यान करें? इसलिये सदा कोशिश करता संतुलन साध कर चलने की चर्चा होती दिखती है जहां सकारात्मक शामिल उसमें हो जाता हूं रखता हूं खुद को सजग जहां होता है टाइमपास वहां से उठ बाहर आ जाता हूं इस तरह साधता मेल व्यक्तिगतता में सामाजिकता का। रचनाकाल : 18 अक्टूबर 2024

अमृत और विष

अमृत ऐसा मैं पहले ढूंढ़ा करता था जो विष के जैसा कर दे असर तुरंत जिसे पीकर हम मानव सदा-सदा के लिये अमरता पा जायें। पर खोज नहीं यह सफल हुई, यह पता चला विध्वंस जिस तरह पल भर में हो जाता है विष उसी तरह तत्काल असर कर जाता है पर सृजन जिस तरह धीरे-धीरे होता है अमृत भी दीर्घ तपस्या से ही बनता है। लगता हो भले विचित्र नियम यह ईश्वर का पर सच है आखिरकार यही जो चीज नकारात्मक होती वह पल भर में हो जाती है मरने में क्षण भर लगता है जीने में लेकिन पूरा जीवन लगता है इसलिये विनाशक लोग प्रकृति के होते जो तत्काल सफलता पाते वे दिख जाते हैं पर चीज सकारात्मक यदि कोई करनी हो तो धीरज लम्बा लगता है हीरा बनने में वर्ष करोड़ों लगते हैं कोयला मगर जलने में पल भर लगता है। इसलिये नहीं घबराता हूं विध्वंसों से रखकर धीरज हर बार सृजन खण्डहरों में से करता हूं तप के बल पर विष अमृत में परिवर्तित होता जाता है। रचनाकाल : 17 अक्टूबर 2024

अहंकार के भाव और योग्यता के अभाव से गिरती लोकतंत्र की गरिमा

 पर्यावरणविद्‌ सोनम वांगचुक समेत 26 लोग दिल्ली में पिछले दस दिनों से भूख हड़ताल पर हैं. लद्दाख में उन्होंने माइनस दस डिग्री के तापमान में 21 दिनों का उपवास किया था. वहां भी लोगों ने उनके साथ उपवास रखा था. कोई सुनवाई नहीं हुई. अब दिल्ली में कोशिश कर रहे हैं, पर सरकार उन्हें और उनके साथियों को हिरासत में लेकर अपनी ताकत दिखाने पर अड़ी हुई है.  वांगचुक की मांग क्या है? प्राकृतिक रूप से संवेदनशील अपने लद्दाख क्षेत्र का संरक्षण-संवर्धन. केंद्र सरकार से लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची के तहत लाने के अपने वादे को निभाने की गुजारिश, जो 2019 के लोकसभा चुनाव के समय किया गया था. यह उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं है. जो काम सरकार को स्वयं करना चाहिए, उसे करवाने के लिए उन्हें सरकार से लड़ना पड़ रहा है. गनीमत है कि सोनम का तरीका गांधीवादी है. हिंसा से लथपथ दुनिया में क्या हमारे नेता इस तरीके के महत्व को समझ पा रहे हैं? गांधीजी ने अंग्रेजों से अहिंसक लड़ाई लड़ी थी, और उन्हीं अंग्रेजों के देश इंग्लैंड में संसद के सामने गांधीजी की मूर्ति स्थापित है. लेकिन जिसने हमें आजादी दिलाई, आजादी के बाद हम आध...

भीतर का न्याय

नुकसान अगर कुछ हो जाए तो बिना अनैतिक-नैतिक की चिंता के मैं भरपाई कर लेने की कोशिश करता था महसूस मगर यह धीरे-धीरे हुआ भ्रष्ट मुझको करते जाते हैं गलत तरीके मैला होता जाता है मन जो नुकसान बहुत यह पहले से भी ज्यादा है। इसलिये कहीं कुछ होता है जो भी घाटा उसको पूरी शिद्दत से सीधे-सीधे ही सह लेता हूं अनुचित साधन अपनाता हर्गिज नहीं आत्मबल बढ़ता जो इस प्रक्रिया में वह मूल्यवान घाटे से ज्यादा होता है। पहले मुझको लगता था छुपकर करता जो भी काम नहीं वह पता किसी को चलता है पर मिला आत्मबल जब कुछ तो यह पता चला औरों से छुपकर हम चाहे जो करें मगर अपने मन से तो कभी नहीं वह छिपता है दे सके अदालत हमें सजा या नहीं हमारा मन हिसाब सारे कर्मों का रखता है धोखा देने की कोशिश करें इसे यदि तो यह नींद हमारी रातों की हर लेता है। रचनाकाल : 12 अक्टूबर 2024

मैं ही क्यों?

जब असहनीय दु:ख मिलते थे मैं भी बाकी लोगों जैसे ईश्वर को कोसा करता था बाकी लोगों को छोड़ मिला दु:ख देने खातिर मैं ही क्यों? पर देखा सुख जब लोगों का तब याद आया मुझको भी तो सुख मिला कभी था बेशुमार तब तो ईश्वर से कभी नहीं पूछा करता था मैं ही क्यों? इसलिये परिस्थिति चाहे अब जैसी भी हो ईश्वर की इच्छा मान उसे खुश हरदम ही रहने की कोशिश करता हूं मन में उठता है नहीं प्रश्न यह कभी कि आखिर मैं ही क्यों? रचनाकाल : 9-11 अक्टूबर 2024

जाहि विधि राखे राम...

अनहोनी की आशंका से मैं डरा-डरा सा रहता था हर चीज सशंकित करती थी चिंतित करता था चाल-चलन नई पीढ़ी का उल्टी विकास की दिशा हमेशा लगती थी। पर देख जब दुश्चिंता का कुछ हासिल नहीं निकलता है तो चिंता करना छोड़ दिया जो जैसा है स्वीकार उसे वैसा ही कर आगे अच्छा बनने को प्रेरित करता हूं खुद को रखता तैयार बुरी से बुरी परिस्थिति खातिर भी थोड़ा भी अच्छा होता है तो खुशी मनाया करता हूं। पहले लगता था होती है सीमा कोई अच्छाई और बुराई की पर समझ गया हूं अब दोनों का कोई अंत नहीं होता जीवन में सीमा कोई चरम नहीं होती इसलिये परिस्थिति चाहे जैसी रहती हो दीपक की लौ सा सिर ऊपर ही रखता हूं जितना भी सम्भव हो अच्छा करने की कोशिश करता हूं। रचनाकाल : 10 अक्टूबर 2024

बारूद के ढेर पर बैठी दुनिया और महाविनाश का इंतजार

 किसने सोचा था कि रूस-यूक्रेन युद्ध ढाई साल से भी ज्यादा लम्बा खिंच जाएगा और इजराइल के हृदय में लगी हमास से बदला लेने की आग एक साल बाद भी ठंडी नहीं होगी! अब तो इसमें ईरान की एंट्री ने दुनिया को दिल थाम कर बैठने के लिए मजबूर कर दिया है दुनिया बारूद के ऐसे ढेर पर बैठी है, जहां एक छोटी सी चिंगारी भी सबकुछ खाक कर सकती है. द्वितीय विश्वयुद्ध ने जो विनाशलीला रचाई थी, उसे देखकर ही दुनियाभर के देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन किया था. एक ऐसी संस्था, जो सभी देशों के बीच विचार-विमर्श का माध्यम बने और विश्वयुद्ध जैसी परिस्थितियों को बनने से रोका जा सके. लेकिन जिन लोगों ने विश्वयुद्ध देखा था, वे अब बचे नहीं हैं और जो तांडव मचाने पर आमादा हैं, उन्होंने विनाशलीला देखी नहीं है.     हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद विकिरण ने जो दिल दहलाने वाला मंजर पेश किया, उसी ने जापान को यह संकल्प लेने पर मजबूर किया था कि वह परमाणु बम नहीं बनाएगा और दुनिया के विकसित देशों में शामिल होने के बावजृूद आज भी उसके पास परमाणु बम नहीं हैं.  दुनिया में राजतंत्रों का जमाना लाख बु...

पिता

थे नहीं बहुत चालाक-चतुर बाबूजी पर जो छूट हमें दी बचपन में उसका महत्व पूरा-पूरा बनने के बाद पिता ही मुझको समझा है दुस्साहस की स्मृतियां अनगिन अब तक रोमांचित करती हैं जो मृत्यु देव से लुका-छिपी खेला करता कर याद उसे अब भी सिहरन सी होती है। अब उसी अवस्था में बच्चों को देख बहुत मन ही मन में, मैं अक्सर ही डर जाता हूं पर होकर भी चालाक-चतुर चुप बाबूजी के ही जैसा रह जाता हूं मन में रखकर भी बोझ छूट बच्चों को पूरी देता हूं जो मिला ताकि रोमांच मुझे बचपन में बच्चे वंचित उससे रहें नहीं बस यही प्रार्थना करता हूं मन ही मन में हे ईश्वर! मेरे बच्चों की रक्षा करना। रचनाकाल : 6 अक्टूबर 2024

सहनशक्ति

जब दर्द बहुत बढ़ जाता है कितनी भी कोशिश करूं, छलक ही जाता है। है नहीं मुझे एतराज कष्ट-दु:ख सहने में पर नहीं चाहता लोगों को यह पता चले सुख लगता है वृक्षों में फल लगने जैसा इसलिये बांटने में उसको सुख मिलता है पर दु:ख वृक्षों की जड़ के जैसा लगता है मिट्टी यदि उसकी हटा, दिखाऊं औरों को तो  खुद को नंगा करने जैसा लगता है। इसलिये प्रार्थना करता हूं यह ईश्वर से दु:ख देना भले, मगर सहने की शक्ति साथ में भी देना गरिमा न ताकि गिरने पाये फांसी लगने पर होता दर्द बराबर, पर अपराधी कोई मरने के पहले डर से मर जाता है पर भगत सिंह के जैसा कोई देशभक्त हंसते-हंसते फंदे पर चढ़ इतिहास अमर हो जाता है। रचनाकाल : 5 अक्टूबर 2024

लड़ाई भीतर की

जितना ही बढ़ता है दुनिया में खतरा लड़ाई का उतना ही लड़ता हूं भीषण अपने आप से रोक सकूं ताकि सर्वनाश को कि दानव मेरे भीतर का हो गया जो बेकाबू कोई उम्मीद नहीं बचेगी दुनिया के बचने की इसीलिये लगाकर भी बाजी अपने प्राणों की लड़ता हूं भीतर के दैत्य से कि निर्भर है हार-जीत बाहर के युद्ध की भीतर के नतीजे पर जब तक है युद्ध जारी भीतर का दुनिया के बचने की उम्मीद बाकी है। रचनाकाल : 2 अक्टूबर 2024

दुनिया को हिंसा और रक्तपात से कब मिलेगी आजादी ?

 आज हम अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती मना रहे हैं. उन्हीं गांधी की, जिनके बारे में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कभी कहा था कि ‘आने वाली पीढ़ियां शायद इस बात पर विश्वास नहीं करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ ऐसा कोई व्यक्ति कभी इस धरती पर आया था’. गांधी जैसी अपार लोकप्रियता विरले ही किसी को मिलती है. परंतु उनके जमाने में भी उनके आदर्शों पर चलने वाले कितने लोग थे? खासकर देश को आजादी मिलने की सम्भावना जैसे-जैसे प्रबल होती गई, वैसे-वैसे उनके दिखाए रास्ते से छिटकने वालों की संख्या भी बढ़ती चली गई थी. यहां तक कि जिस कांग्रेस के जरिये उन्होंने आजादी की पूरी लड़ाई लड़ी, उसके कई नेता भी आजादी निकट आने पर उनको पहले जैसी तवज्जो नहीं देते थे. इसे इसी एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि गांधीजी ने कहा था कि देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा, लेकिन बंटवारे में शामिल नेताओं ने, ऐसा करते वक्त उन्हें जानकारी तक देना जरूरी नहीं समझा था. बेशक, गांधीजी कभी नेताओं पर निर्भर नहीं रहे, लेकिन जो जनता कभी उनके पीछे पागल रहती थी, उसने भी उनकी बात सुनना बंद कर दिया था. आखिर जो लोग लाठी-डंडे तो क्या, गो...