दु:ख में सुख
मैं सामंजस्य बिठाता हूं जब तक विपरीत परिस्थिति से
तब तक बाधाएं नई उपस्थित फिर से होने लगती हैं
सुस्ता ही पाता नहीं कभी जीवन में कुछ पल खातिर भी।
इस तरह रहा नाराज बहुत दिन ईश्वर से
पर प्रौढ़ हुआ जब तो जाना
ईश्वर का था उपकार बड़ा कितना ज्यादा
सहकर उलाहना भी इतना हित, कौन किसी का करता है!
दरअसल चाहता था मैं ठहरे पानी का डबरा बनना
जीना अपने ही सेफ जोन में, कोई रिस्क नहीं लेना
पर ईश्वर को था पता कि जीवन जीकर मैं आरामदेह
कमजोर स्वयं को ही भीतर-बाहर से करता जाऊंगा
रुक गया अगर जो एक जगह, धीरे-धीरे सड़ जाऊंगा
इसलिये दूर होते ही बाधा एक, दूसरा संकट वह ला देता था
मुझको कुम्हार के कुम्भ सरीखा पीट-पीटकर गढ़ता था।
अब जान गया जब यह रहस्य, खुद ही तकलीफें सहता हूं
‘रमता जोगी बहता पानी’ सा तन-मन को
गतिशील हमेशा रखता हूं
जब सुख भोगा करता था तब
बेचैन रहा करता था मन दु:ख के डर से
अब दु:ख सहता जब स्वेच्छा से
ऋषियों की त्याग-तपस्या सा सुख मिलता है
तन-मन बनता मजबूत और निश्चिंत भाव से जीता हूं।
रचनाकाल : 24 अक्टूबर 2024
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