रावण-राज

इतने ज्यादा बुरे तो न थे हम कभी
राम के पक्ष में खुद को रखते हुए
पुतला रावण का हरदम जलाते रहे
जो मिली थी विरासत में हमको दिशा
तेज उन्नति उसी पथ पे करते रहे
फिर ये किस खोह में आ गये आज हम
घोंटती जाती दम गंध बारूद की
क्यों है मंजर भयावह ये चारों तरफ
दीखते खण्डहर, चिथड़े बिखरे हुए
राह भटके कहां
हम ये रावण के खेमे में कब आ गये?
राम का तो कहीं है पता ही नहीं
आती जाती घड़ी पास सर्वनाश की
क्या बचाएगा अब हमको कोई नहीं
खत्म सचमुच ही दुनिया ये हो जायेगी?
रचनाकाल : 30 अक्टूबर 2024

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