पिता


थे नहीं बहुत चालाक-चतुर बाबूजी पर
जो छूट हमें दी बचपन में
उसका महत्व पूरा-पूरा
बनने के बाद पिता ही मुझको समझा है
दुस्साहस की स्मृतियां अनगिन
अब तक रोमांचित करती हैं
जो मृत्यु देव से लुका-छिपी खेला करता
कर याद उसे अब भी सिहरन सी होती है।

अब उसी अवस्था में बच्चों को देख
बहुत मन ही मन में, मैं अक्सर ही डर जाता हूं
पर होकर भी चालाक-चतुर
चुप बाबूजी के ही जैसा रह जाता हूं
मन में रखकर भी बोझ
छूट बच्चों को पूरी देता हूं
जो मिला ताकि रोमांच मुझे बचपन में
बच्चे वंचित उससे रहें नहीं
बस यही प्रार्थना करता हूं मन ही मन में
हे ईश्वर! मेरे बच्चों की रक्षा करना।
रचनाकाल : 6 अक्टूबर 2024

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