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Showing posts from September, 2024

शत्रुता में सौहार्द

चाहता तो हर्गिज नहीं कोई मेरा शत्रु बने लेकिन गलतफहमी से या कि मतभेद से पाल लेते कई लोग शत्रुता फिर भी जो करते हैं दुश्मनी उनसे भी रखता नहीं दुश्मनी खोजता हूं कारणों को कितने भी गहरे मतभेद हों दृष्टिकोण लेकिन समझ लेता जब अपने प्रतिपक्षी का गायब हो जाती है कट्टरता पैदा हो जाती सहानुभूति जैसे कुम्हार भीतर हाथ रख गढ़ता है कुम्भ को रखकर संवेदना सम्भव हो जाता है होकर मतभेद भी भीतर से जीत लेना शत्रु को कि लड़ते रहे जिससे बरसों-बरस तक दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी जिंदगी भर बनी रही मित्रता उसी जनरल स्मट्स से लड़कर भी अंग्रेजी राज से मीरा महन, एंड्रयूज जैसे अंग्रेज कई साथ रहे जीवनभर गांधी के। रचनाकाल : 25-26 सितंबर 2024

अपूर्णता में जीवन

जब तक मैं खोजता था हर जगह पूर्णता रह जाता हरदम निराश ही कुछ भी न मिलता सम्पूर्ण था आकर्षित करता था जीवन जीने का ढंग बापू का विचलित पर करती थी हरिलाल गांधी की त्रासदी आदर्श लगता था रामराज्य लेकिन वनवास सीता माता का व्याकुल कर देता था पढ़ता जब गीता में कर्मयोग-ज्ञानयोग जागती थी वृत्ति वैराग्य की लेकिन देख युद्ध महाभारत का सीमा नहीं रहती हैरानी की कोई कैसे निष्काम भाव से हत्या कर सकता है? ऐसी ही दुविधा में गांव छोड़ आया बरसों पहले मैं कि देखी नहीं जाती थी खेती-किसानी में बैलों की ताड़ना लेकिन महसूस हुआ शहर में काम नहीं चलता है जीवन में बन कर सिद्धांतवादी एकदम कि सोना भी पूरा अगर खरा हो तो गहन नहीं बनता है बिना किसी खोट के जीवन नहीं चलता है इसीलिये नहीं अब निकालता हूं मीन-मेख दिखता गुण जहां भी कर लेता ग्रहण उसे वहीं से करके उपेक्षा बुराई की सब में तलाशता हूं अच्छाई देते हैं लोग सारे प्रेरणा देखकर तलाश मेरी मिलती है लोगों को और अच्छा बनने की प्रेरणा। रचनाकाल : 24 सितंबर 2024

सिद्धांतों की अति से मिलावट की दुर्गति तक पहुंचता समाज

 प्रसाद में मिलावट की खबर से देशभर के श्रद्धालु हैरान-परेशान हैं. मामला चूंकि आस्था का है, इसलिए दर्द बहुत ज्यादा है लेकिन हकीकत यह है कि हमारे भीतर-बाहर हर चीज आज मिलावटी हो गई है. शायद ही कोई ऐसा खाद्य पदार्थ बचा होगा, जिसमें मिलावट न हो रही हो. व्यवहार ही हमारा कहां शुद्ध रह गया है! सोने से जैसे आभूषणों का निर्माण किया जाता है, वैसे ही सिद्धांतों से संस्कारों का. यह सच है कि एकदम खरे अर्थात 24 कैरेट के सोने से गहने नहीं बनाए जा सकते और न निपट सिद्धांतवादी बनकर जीवन जिया जा सकता है. कुछ न कुछ मिलावट दोनों में करनी ही पड़ती है. लेकिन मिलावट जब इतनी बढ़ जाए कि सोने की सिर्फ पॉलिश भर रह जाए तो वह ज्वेलरी रोल्ड-गोल्ड कहलाती है और आदमी के व्यवहार में सिद्धांतों का मुलम्मा भर रह जाए तो उसे पाखंडी कहते हैं.     खेती जब शुद्ध प्राकृतिक ढंग से की जाती थी तो नौबत भुखमरी तक पहुंच जाती थी. इसीलिए हमने हरित क्रांति की, जमीन में जिन तत्वों की कमी थी उन्हें रासायनिक खादों के जरिये उपलब्ध कराया, कीटनाशकों के जरिये फसल को सुरक्षित किया, बारिश की कमी की भरपाई भूमिगत जल के दोहन से की. नतीजे में मिली बं

प्रवाह के खिलाफ

सब्जी पसंद तो नहीं है मुझे लौकी या कुम्हड़े की लेकिन कहीं मिलती तो खा जाता पहले ही स्वाद ताकि ले सकूं बाद में जो व्यंजन स्वादिष्ट हों लेकिन लगता है मेजबानों को बेहद प्रिय मेरी यह सब्जी है जबरन परोसते हैं बार-बार। दु:खों से लगाव तो रहा नहीं मुझे कभी लेकिन अपने हिस्से के चुन-चुनकर दु:ख सारे सहता हूं पहले ही ताकि सुख भोग सकूं बाद में लगता पर शायद यह ईश्वर को दु:खों से मुझे विशेष स्नेह है इसीलिये जबरन वह बार-बार दु:ख मेरे हिस्से में देता है। अद्‌भुत है लेकिन यह खाते हुए बार-बार लौकी या कुम्हड़े की सब्जी अब लगती स्वादिष्ट है आदत पड़ने के बाद दु:खों की सुख मिलने लगता है बरसों पहले जब मुझे आदत लगी हुई थी सुखों की दु:ख उसमें मिलता था स्वादिष्ट पकवानों से रोग तन में लगता था तब से इच्छाओं का उल्टा ही करता हूं दीखता जो विष वह भी अमृत हो जाता है दाब जैसे कोयला सह हीरा बन जाता है। रचनाकाल : 21 सितंबर 2024

मजबूत बने बुनियाद

चाहता हूं मैं भी कोई नया आविष्कार करूं अपनी मानव जाति का जीवन आसान करूं लेकिन डर जाता हूं देख करके हश्र आविष्कारों का जितनी ही बढ़ती हैं सुविधाएं उतना ही प्रदूषण भी बढ़ता है रहता था समय जितना पहले कला-सृजन का उतना भी अब नहीं बचता है। इसीलिये चाहता हूं करने से पहले आविष्कारों के अपनी मानव जाति में मानवोचित गुणों का विकास करूं अच्छा इंसान बनें लोग इसमें मदद करुं ताकि प्रतिभा का सदुपयोग हो कि था तो विद्वान बहुत रावण भी लेकिन नहीं सज्जन इंसान था इसीलिये उसको जो मिले वरदान भी बनके अभिशाप सारे रह गये। डरता हूं मैं भी कि शक्ति जो अपार मिली हमको परमाणु के विखण्डन से कर दे न दुनिया तबाह बम इसीलिये साधने को शक्ति अतुलनीय वह खुद को मजबूत पहले गंगाधर शिव सा बनाता हूं ताकि जब स्वर्ग से अवतरण हो गंगा का फोड़ कर वे धरती को समा नहीं जायें पाताल में। रचनाकाल : 19-20 सितंबर 2024

मध्यस्थता का महत्व और मध्यस्थ बनने की योग्यता

 कुछ महीनों की शांति के बाद मणिपुर फिर हिंसा की आग में झुलसने लगा है. फिलिस्तीन पर इजराइल का हमला लगभग साल भर से जारी है. रूस-यूक्रेन का संघर्ष ढाई साल बाद भी थमा नहीं है. बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार जैसे देशों में भयावह आंतरिक विद्रोह हम देख ही चुके हैं. दुनिया भर के देश जितना बाहरी विद्रोह से जूझ रहे हैं, उतना ही भीतरी हिंसा से भी झुलस रहे हैं. एक समय था जब मतभेदों के निपटारे के लिए युद्ध के अलावा कोई अंतिम उपाय नहीं था. तब युद्धों का बढ़ा-चढ़ाकर बखान भी किया जाता था, ताकि लोग इसमें बढ़-चढ़ कर शामिल होने को प्रेरित हों. पर हम तो गांधीजी की सत्याग्रह की लड़ाई देख चुके हैं, मतभेदों के समाधान का एक अहिंसक विकल्प हमारे सामने मौजूद है; फिर क्यों दुनिया को दिशा दिखाने के बजाय हम भी हिंसा की धारा में ही बहे जा रहे हैं? भारत को जब हम विश्वगुरु कहते हैं या कहते हैं कि भारत ही दुनिया के झगड़ों को मध्यस्थता से सुलझाने की क्षमता रखता है, तो क्या इसके पीछे की गुरुता या जिम्मेदारी का पूरा-पूरा अहसास हमें होता है? बाहर के झगड़े हम तभी निपटा सकते हैं जब भीतर के मसलों को सुलझा कर दुनिया के सामने म

शब्दों में अर्थ भरते कर्म

वाणी को ही मैं पहले सारे मुद्दे सुलझाने का उत्तम माध्यम माना करता था करते जब लोग कुतर्क मुझे लगता कि कमी शायद मेरे अंदर ही है जो सही तरीके से लोगों को समझा पाता नहीं, मगर यह भेद बहुत दिन बाद खुला जो नहीं चाहता समझे चाहे कितना भी सिर पटकें हम हरगिज न उसे समझा सकते सच तो यह है कि बिना कर्मों के शब्दों का कोई भी मोल नहीं होता कहने वाले के कर्मों से ही शब्दों को बल मिलता है इसलिये वाक्-चातुर्य दिखाने में अब पड़ता नहीं साधने की कोशिश करता हूं अपने कर्मों को होते हैं मन के भाव शुद्ध तो मामूली शब्दों का भी होता है असर बहुत ज्यादा दरअसल ध्यान लोगों का शब्दों के बजाय कहने वाले की नीयत पर ही रहता है। रचनाकाल : 12 सितंबर 2024

आम आदमी

बाकी लोगों की तरह मुझे भी चोर-लुटेरे बुरे आदमी लगते हैं पर मदद अगर करते मेरी तो रॉबिनहुड से दिखते हैं। मैं नहीं समर्थन करता भ्रष्टाचारी का पर काम अगर उसके जरिये से मेरा कोई सधता हो तो वोट उसे ही देता हूं। बेशक मैं आदतन कभी भी झूठ बोलता नहीं, मगर बनकर भी राजा हरिश्चंद्र नुकसान न अपना करता हूं। औरों से मैं भी कहता हूं सिद्धांतवादिता अच्छी है पर बच्चों को दुनियादारी का पाठ पढ़ाया करता हूं। अब तो धीरे-धीरे सचमुच ही मुझको समझ नहीं आता क्यों दुनिया गिरती जाती है अपराधी बढ़ते जाते हैं? रचनाकाल : 10 सितंबर 2024

समाज में बढ़ता पाखंड और आदर्शवाद का दरकता मुखौटा

 यह बेहद चौंकाने वाली खबर है कि पंजाब की जेलों में कैदी अपना खौफ बनाए रखने के लिए बदन पर एके-47 और धारा 302, 307 जैसे टैटू गुदवा रहे हैं. इसके जरिये वे खुलेआम प्रदर्शित करते हैं कि हत्या या हत्या का प्रयास जैसे जघन्य अपराध उन्होंने किए हैं. जेलें तो अपराधियों के सुधार के मकसद से बनाई गई थीं, अपराध को अगर वे स्टेटस सिंबल बना रहे हैं तो यह किस भविष्य का संकेत है?  लेकिन खबर शायद इतनी चौंकाने वाली भी नहीं है. हम खुले तौर पर स्वीकार करें या नहीं, लेकिन जानते हैं कि अपराध सचमुच ही स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. अपराधियों के साथ घूमना या उनसे मेलजोल रखना अब लोग शर्म नहीं, शान की बात समझने लगे हैं. आखिर बाहुबलियों के चुनाव जीतने की और किस तरह से व्याख्या की जा सकती है? सार्वजनिक हितों पर अब निजी हित इतने हावी हो गए हैं कि जिसे हम देश हित में हानिकारक मानते हैं, निजी हित में उसे तरजीह देते हैं. वैसे रॉबिनहुड की कहानी हमें पुराने जमाने से ही आकर्षित करती रही है, जो अमीरों की संपत्ति लूटकर गरीबों में बांटता था. बाहुबलियों को चुनते समय भी क्या हम उनमें उसी रॉबिनहुड की छवि देखते हैं? पाखंडी का शाब्द

संबल पुरखों का

जब कमी नहीं हो पैसों की तब करके मदद किसी की लेना यश मुझको शर्मिंदा करता है भरसक कोशिश करता हूं इसीलिये कि आये नहीं सामने नाम किसी को पता नहीं चलने पाये था मददगार वह कौन जरूरतमंदों का। ख्वाहिश बस इतनी होती है जब घर की विकट परिस्थिति हो तब भी मुझसे जो ज्यादा हो असहाय काम आने से उसके नहीं डरूं मुझको दधीचि, शिबि, कर्ण सरीखे परम दानियों के किस्से रोमांचित करते हैं। मैं झूठ बोलता नहीं, सहज स्वाभाविक ही कह देता कोई मगर सत्यवादी तो डर जाता हूं होने को हो यदि कोई भारी नुकसान जरूरत पड़ने पर भी झूठ बोलने की सच पर ही अड़ा रहूं, क्या इतनी क्षमता रखता हूं? मैं हिल जाता हूं सुनकर राजा हरिश्चंद्र के किस्से को पर अगर युधिष्ठिर जैसे राजा सत्यनिष्ठ भी चरम क्षणों में टिके नहीं रह पाये तो मेरी आखिर क्या हस्ती है! इसलिये सदा ही अहंकार से डरता हूं जिस गुण का भी होने लगता अभिमान बहुत आगे हैं जो उस गुण में मुझसे लोग स्मरण उनका करने लग जाता हूं। रचनाकाल : 8 सितंबर 2024

आजादी का सदुपयोग

जब हो थकान से बोझिल तन चिंता से भरा हुआ हो मन तब निष्क्रियता छा जाने का डर लगता है पर जब हो शक्ति अदम्य भरी तन-मन में जीवन बीते जब निश्चिंत समय तब व्यर्थ बीत जाने का उससे भी ज्यादा भय लगता है होती है कड़ी जरूरत तब महसूस स्वयं पर नजर हमेशा रखने की अनजाने में ही ताकि न दुर्व्यसनों की आदत पड़ जाये। जब देश नहीं आजाद हुआ था था समक्ष सबके अपना उद्देश्य स्पष्ट मिल गई मगर जब आजादी उद्देश्यहीन हो हमने समय गंवाया जो मुझको उससे डर लगता है बढ़ते ही जाते जो जघन्य अपराध इसी की खातिर क्या आजादी के दीवानों ने अपने प्राणों की अनगिनती आहुति दी थी? रचनाकाल : 6 सितंबर 2024

बस्ते के बढ़ते बोझ और खेल के घटते मैदानों से जा रही छात्रों की जान !

 देश में विद्यार्थियों की आत्महत्या की बढ़ती दर चौंकाने वाली है, जो पिछले दो दशकों में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है. यहां तक कि कुल आत्महत्याएं दो प्रतिशत की दर से बढ़ी हैं, जबकि छात्रों की आत्महत्या 4.2 प्रतिशत की दर से. अभी तक किसान आत्महत्याएं ही देश को चिंता में डालती रही हैं, क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं में फसल बर्बाद होने पर किसान समझ नहीं पाता कि अपने परिवार का पेट कैसे भरे. वैसे किसानों की बदहाली पुराने जमाने से ही चली आ रही है लेकिन किसान आत्महत्या नये जमाने की चीज लगती है. इसलिए यह तो है कि लोगों की सहनशक्ति कमजोर हुई है, लेकिन विद्यार्थियों की आत्महत्या फिर भी ऐसी चीज है जो किसी भी दृष्टि से हजम नहीं होती.  एक जमाना था, जब ‘गुरुजी’ कहलाने वाले मास्टर साहब ऐसी सख्ती से पेश आते थे जिसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती. लेकिन मजाल है कि किसी विद्यार्थी के मन में  आत्महत्या का कभी ख्याल भी आया हो! फिर ऐसा क्यों है कि नजाकत में पली-बढ़ी आज की नई पीढ़ी जरा भी तनाव बर्दाश्त नहीं कर पाती? जीवन बेशक एक संघर्ष है, लेकिन जीवन एक खेल भी है. हमने तीन-चार साल के नर्सरी-केजी के बच्चों पर भी पढ़ा

विष-बीज

फल खाते-खाते मीठा सहसा आया मुझको ध्यान लगाये पुरखों ने फलदार वृक्ष उपभोग कर रहा जिनका मैं पर मैंने क्या निर्माण किया क्या वंशज मेरे युद्धों का फल खायेंगे? होती दुनिया में फलीभूत हर चीज कर्म कुछ देरी से तो कुछ जल्दी फल देते हैं हर कालखण्ड का दुनिया में होता अपना इतिहास हजारों वर्ष पूर्व जो बने धर्म फल उनमें अब तक लगते हैं हमने भी यदि परमाणु युद्ध लड़ लिया नहीं क्या उसका जहरीला फल हम लोगों के वंशज भुगतेंगे सैकड़ों-हजारों वर्षों तक! कुछ फल यदि सड़े निकलते हैं प्राचीन धर्म के वृक्षों के करते हम आलोचना पुरानी पीढ़ी की बो रहे मगर जो बीज युद्ध के वृक्षों के उसके तो सारे फल ही जहरीले होंगे जिस नफरत से तब देखेंगे वंशज हमको हम जहां कहीं भी होंगे खुद को माफ कभी कर पाएंगे? रचनाकाल : 31 अगस्त 2024

पुनर्निर्माण

मन को तो घेरे रहती हैं आशंकाएं-दुश्चिंताएं पर कोशिश करता हूं कि उन्हें बाहर न निकलने दूं मन से कीचड़ में रहकर जैसे खिलता कमल बनाकर खाद सभी चिंताओं को आशाओं-उम्मीदों का नया वितान रचूं खण्डहरों से लेकर के कच्चा माल पुराने महलों से भी भव्य नई संरचना का निर्माण करुं। मैं नहीं चाहता जीवन मुझको सुख-सुविधा से भरा मिले इच्छा मन में बस इतनी है विष पीकर नीलकण्ठ जैसे दुनिया को अमृत दान करूं इसलिये नहीं युद्धों में भी उम्मीदें अपनी खोता हूं हो चाहे जितनी बार ध्वंस-विध्वंस कर सकूं सदा पुनर्निर्माण शक्ति बस इतनी ही ईश्वर से मांगा करता हूं। रचनाकाल : 30 अगस्त 2024

अंधी दौड़

 दर्द का समंदर सा तन में लहराता है नींद जब भी खुलती है पोर-पोर दुखता है काम इतना ज्यादा है एक क्षण नहीं रुकता भागता ही जाता हूं रह न जाऊं पीछे ताकि तीव्र वेग से होती तरक्की से। भागदौड़ में ही इस  बीतता है दिन सारा रात फिर से आती है दर्द के समंदर में तन डुबा के जाती है हो रहा है अंधाधुंध वेग से विकास मगर शांति मिल नहीं पाती रुक कहीं नहीं पाता खत्म कब सफर होगा जानता नहीं कोई भागता ही जाता हूं दौड़ अंधी जारी है. रचनाकाल : 29-30 अगस्त 2024