अपूर्णता में जीवन


जब तक मैं खोजता था
हर जगह पूर्णता
रह जाता हरदम निराश ही
कुछ भी न मिलता सम्पूर्ण था
आकर्षित करता था
जीवन जीने का ढंग बापू का
विचलित पर करती थी
हरिलाल गांधी की त्रासदी
आदर्श लगता था रामराज्य
लेकिन वनवास सीता माता का
व्याकुल कर देता था
पढ़ता जब गीता में
कर्मयोग-ज्ञानयोग
जागती थी वृत्ति वैराग्य की
लेकिन देख युद्ध महाभारत का
सीमा नहीं रहती हैरानी की
कोई कैसे निष्काम भाव से
हत्या कर सकता है?

ऐसी ही दुविधा में
गांव छोड़ आया बरसों पहले मैं
कि देखी नहीं जाती थी
खेती-किसानी में
बैलों की ताड़ना
लेकिन महसूस हुआ शहर में
काम नहीं चलता है जीवन में
बन कर सिद्धांतवादी एकदम
कि सोना भी पूरा अगर खरा हो
तो गहन नहीं बनता है
बिना किसी खोट के
जीवन नहीं चलता है
इसीलिये नहीं अब
निकालता हूं मीन-मेख
दिखता गुण जहां भी
कर लेता ग्रहण उसे वहीं से
करके उपेक्षा बुराई की
सब में तलाशता हूं अच्छाई
देते हैं लोग सारे प्रेरणा
देखकर तलाश मेरी
मिलती है लोगों को
और अच्छा बनने की प्रेरणा।
रचनाकाल : 24 सितंबर 2024

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक