सिद्धांतों की अति से मिलावट की दुर्गति तक पहुंचता समाज

 प्रसाद में मिलावट की खबर से देशभर के श्रद्धालु हैरान-परेशान हैं. मामला चूंकि आस्था का है, इसलिए दर्द बहुत ज्यादा है लेकिन हकीकत यह है कि हमारे भीतर-बाहर हर चीज आज मिलावटी हो गई है. शायद ही कोई ऐसा खाद्य पदार्थ बचा होगा, जिसमें मिलावट न हो रही हो. व्यवहार ही हमारा कहां शुद्ध रह गया है! सोने से जैसे आभूषणों का निर्माण किया जाता है, वैसे ही सिद्धांतों से संस्कारों का. यह सच है कि एकदम खरे अर्थात 24 कैरेट के सोने से गहने नहीं बनाए जा सकते और न निपट सिद्धांतवादी बनकर जीवन जिया जा सकता है. कुछ न कुछ मिलावट दोनों में करनी ही पड़ती है. लेकिन मिलावट जब इतनी बढ़ जाए कि सोने की सिर्फ पॉलिश भर रह जाए तो वह ज्वेलरी रोल्ड-गोल्ड कहलाती है और आदमी के व्यवहार में सिद्धांतों का मुलम्मा भर रह जाए तो उसे पाखंडी कहते हैं. 

   खेती जब शुद्ध प्राकृतिक ढंग से की जाती थी तो नौबत भुखमरी तक पहुंच जाती थी. इसीलिए हमने हरित क्रांति की, जमीन में जिन तत्वों की कमी थी उन्हें रासायनिक खादों के जरिये उपलब्ध कराया, कीटनाशकों के जरिये फसल को सुरक्षित किया, बारिश की कमी की भरपाई भूमिगत जल के दोहन से की. नतीजे में मिली बंपर पैदावार. यहां तक तो ठीक था लेकिन हमें लगा कि फसल उत्पादन के लिए रासायनिक खाद, कीटनाशक और पानी ही सबकुछ है, और इनका इतना अंधाधुंध इस्तेमाल किया कि जमीन को नशेड़ी जैसा बना दिया. जैसे नशा करने वाले को नशीले पदार्थ की मात्रा बढ़ाते जानी पड़ती है, वैसा ही हाल हमने कृषि भूमि का कर दिया है. 

इसी तरह गांवों में प्राकृतिक ढंग से जीने वालों को हम निपट गंवार मानते थे और उसमें जब हमने थोड़ी सी शहरी सभ्यता मिलाई तो वह चमक उठी(शायद यही कारण है कि यूपी-बिहार के ग्रामीण इलाकों के संसाधनविहीन कर्मठ युवा जब शहरों में आते हैं तो खूब तरक्की करते हैं). लेकिन सभ्यता को ही हमने सबकुछ मान लिया और भीतर से ठोस बनने की इतनी ज्यादा उपेक्षा करते गए कि अब पॉलिश किए गए सोने की तरह कृत्रिम नजर आने लगे हैं.

औद्योगिक क्रांति की जब शुरुआत हुई थी तब हमने कुछ अद्‌भुत मशीनों का निर्माण किया, जैसे साइकिल और सिलाई मशीन. मनुष्य बल से चलने वाली इन मशीनों ने बिना किसी साइड इफेक्ट के हम मनुष्यों का बहुत सारा श्रम बचाया था. लेकिन मशीनीकरण इतने पर ही नहीं रुका. हमने मशीनों को ही सबकुछ मान लिया और मनुष्य बल की जगह कृत्रिम बल के उपयोग ने दुनिया को इतना प्रदूषित कर दिया कि आज मानव जाति के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है. 

वस्तु-विनिमय के साधन के रूप में रुपया जब चलन में आया तो यह एक बहुत बड़ी क्रांति थी. लेकिन धीरे-धीरे हमने रुपए को प्रतीक की जगह स्वतंत्र वस्तु मान लिया और उसी का नतीजा है कि आज हम रुपया कमाने के लिए मिलावटखोरी की तरह किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार हैं. सिद्धांत के तौर पर न सही, लेकिन व्यवहार में हमने पैसे को परिश्रम की अवधारणा से मुक्त कर दिया है. शायद यही कारण है कि हम नागरिकों को तो लॉटरी लगने पर खुशी होती ही है(उसे किस्मत का नाम देकर हम खुद को ठगते हैं), सरकारों को भी मुफ्त का माल बांटने में कोई बुराई नजर नहीं आती. फिर मिलावटखोरों को ही चाहे जिस तरीके से पैसा कमाने पर अपराधबोध कैसे हो? 

अगर हम अपने विवेक को जागृत रखें तो लक्ष्मण रेखा को पहचान सकते हैं; लेकिन लालच में जब आदमी अंधा हो जाए तो उसकी विवेक की आंखों को कौन खोले? 

(25 सितंबर 2024 को प्रकाशित)

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