मध्यस्थता का महत्व और मध्यस्थ बनने की योग्यता
कुछ महीनों की शांति के बाद मणिपुर फिर हिंसा की आग में झुलसने लगा है. फिलिस्तीन पर इजराइल का हमला लगभग साल भर से जारी है. रूस-यूक्रेन का संघर्ष ढाई साल बाद भी थमा नहीं है. बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार जैसे देशों में भयावह आंतरिक विद्रोह हम देख ही चुके हैं. दुनिया भर के देश जितना बाहरी विद्रोह से जूझ रहे हैं, उतना ही भीतरी हिंसा से भी झुलस रहे हैं. एक समय था जब मतभेदों के निपटारे के लिए युद्ध के अलावा कोई अंतिम उपाय नहीं था. तब युद्धों का बढ़ा-चढ़ाकर बखान भी किया जाता था, ताकि लोग इसमें बढ़-चढ़ कर शामिल होने को प्रेरित हों. पर हम तो गांधीजी की सत्याग्रह की लड़ाई देख चुके हैं, मतभेदों के समाधान का एक अहिंसक विकल्प हमारे सामने मौजूद है; फिर क्यों दुनिया को दिशा दिखाने के बजाय हम भी हिंसा की धारा में ही बहे जा रहे हैं?
भारत को जब हम विश्वगुरु कहते हैं या कहते हैं कि भारत ही दुनिया के झगड़ों को मध्यस्थता से सुलझाने की क्षमता रखता है, तो क्या इसके पीछे की गुरुता या जिम्मेदारी का पूरा-पूरा अहसास हमें होता है? बाहर के झगड़े हम तभी निपटा सकते हैं जब भीतर के मसलों को सुलझा कर दुनिया के सामने मिसाल पेश करें. पुराने जमाने में जिस बुजुर्ग को गांव का प्रधान बनाया जाता था, केवल नैतिक बल की वजह से ही गांव के सारे लोग उसकी बात मानते थे. कहानी है कि एक बार दो भाइयों के बीच बंटवारे का मुद्दा सोने की एक अंगूठी पर अटक गया. बाकी सारी चीजों का बंटवारा हो गया, लेकिन अंगूठी तो एक ही थी! और कोई भी भाई झुकने को तैयार नहीं था. अंत में मध्यस्थता करने वाले ग्राम प्रधान ने एक नायाब तरीका खोजा. उसी के जैसी एक और अंगूठी उसने अपने पैसे से बनवाई और दोनों भाइयों से अलग-अलग मिलकर कहा कि अंगूठी तुम्हारे हिस्से में दे रहा हूं लेकिन अपने भाई से इसकी चर्चा मत करना. दोनों भाई खुश कि अंगूठी उन्हें मिल गई! और दोनों परिवारों की दुश्मनी भी दोस्ती में बदल गई. मेलजोल के बाद जब उन्हें पता चला कि अंगूठी तो दोनों को ही मिली है, तब उन्हें ग्राम प्रधान की नैतिक ऊंचाई का अहसास हुआ और तब दोनों ने अपनी-अपनी अंगूठियां प्रधान को सौंप दीं. इस तरह दोनों के बीच का झगड़ा भी खत्म हो गया और ग्राम प्रधान को भी एक अंगूठी के बदले में दो मिल गईं, जिसे उसने गांव के सार्वजनिक कोष में जमा करा दिया, अर्थात सबका फायदा.
एक और तरह की मध्यस्थता की कहानी हमने पढ़ी है; बिल्लियों के झगड़े में बंदर की. दो बिल्लियों के बीच एक रोटी के बंटवारे पर जब झगड़ा हुआ तो मध्यस्थ बना बंदर थोड़ा-थोड़ा करके सारी रोटी खुद खा गया था. इसके भुक्तभोगी भी हम गुलामी के दौर में बन चुके हैं, जब अंग्रेज मध्यस्थता के बहाने देसी राजाओं की रियासत हड़प लेते थे. इसीलिए शायद पश्चिमी देशों की मध्यस्थता को संदेह की नजर से देखा जाता है(क्योंकि हथियार बेचकर युद्धों से वे कमाई करते हैं). भारत से मध्यस्थता की उम्मीद दुनिया करती है क्योंकि पूर्वजों से यह गुण हमें विरासत में मिला है. लेकिन सोने की अंगूठी का बंटवारा करने वाले ग्राम प्रधान जितनी नैतिक शक्ति होने पर ही कोई मध्यस्थता करने के योग्य बन पाता है. एक राष्ट्र के तौर पर क्या हम अपना पुराना नैतिक बल फिर से अर्जित करने को तैयार हैं?
(19 सितंबर 2024 को प्रकाशित)
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