अंधी दौड़
दर्द का समंदर सा
तन में लहराता है
नींद जब भी खुलती है
पोर-पोर दुखता है
काम इतना ज्यादा है
एक क्षण नहीं रुकता
भागता ही जाता हूं
रह न जाऊं पीछे ताकि
तीव्र वेग से होती तरक्की से।
भागदौड़ में ही इस
बीतता है दिन सारा
रात फिर से आती है
दर्द के समंदर में
तन डुबा के जाती है
हो रहा है अंधाधुंध
वेग से विकास मगर
शांति मिल नहीं पाती
रुक कहीं नहीं पाता
खत्म कब सफर होगा
जानता नहीं कोई
भागता ही जाता हूं
दौड़ अंधी जारी है.
रचनाकाल : 29-30 अगस्त 2024
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