पुनर्निर्माण
मन को तो घेरे रहती हैं
आशंकाएं-दुश्चिंताएं
पर कोशिश करता हूं कि उन्हें
बाहर न निकलने दूं मन से
कीचड़ में रहकर जैसे खिलता कमल
बनाकर खाद सभी चिंताओं को
आशाओं-उम्मीदों का नया वितान रचूं
खण्डहरों से लेकर के कच्चा माल
पुराने महलों से भी भव्य
नई संरचना का निर्माण करुं।
मैं नहीं चाहता जीवन मुझको
सुख-सुविधा से भरा मिले
इच्छा मन में बस इतनी है
विष पीकर नीलकण्ठ जैसे
दुनिया को अमृत दान करूं
इसलिये नहीं युद्धों में भी
उम्मीदें अपनी खोता हूं
हो चाहे जितनी बार ध्वंस-विध्वंस
कर सकूं सदा पुनर्निर्माण
शक्ति बस इतनी ही
ईश्वर से मांगा करता हूं।
रचनाकाल : 30 अगस्त 2024
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