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Showing posts from May, 2024

लालच की आग, अपराध बढ़ाती गर्मी और आभासी दुनिया में जीते युवा

 देश में एक तरफ जहां सूर्यदेव आग बरसा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ हम मनुष्यों की लापरवाही से लगने वाली आग भी कहर ढा रही है. नैनीताल के जंगलों में लगी आग की खबर अभी ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि अपने फायदे के लिए दूसरों की जान से खेलने वालों के लालच की आग ने मासूम बच्चों सहित दर्जनों लोगों को लील लिया. आग चाहे राजकोट के गेम जोन में लगी हो(जिसमें बच्चों सहित दो दर्जन से अधिक लोग जिंदा जल गए) या दिल्ली के बेबी केयर सेंटर में भड़की हो(जिसने सात मांओं की कोख उजाड़ दी), प्रारम्भिक जांच बता रही है कि तबाही मानव निर्मित ही है. गेम जोन को जहां बिना जांच के ही एनओसी दे दी गई थी और फायर एनओसी तो थी ही नहीं, वहीं दिल्ली के बेबी केयर सेंटर में न आग बुझाने के लिए अग्निशामक यंत्र थे, न बच्चों की देखरेख के लिए योग्य डाॅक्टर. सेंटर का लाइसेंस भी मार्च 2024 में ही खत्म हो चुका था. कुछ ही दिन पहले हुए मुंबई के होर्डिंग हादसे में भी सैकड़ों लोगों की जान जाने के बाद पता चला कि वह अवैध था. ताज्जुब है कि इंसानी लालच की दहकती आग को देखने के बाद भी हमारे देश के कर्ता-धर्ता आगबबूला क्यों नहीं होते?  आग तो समाज म...

बोझ नहीं, वरदान

लगता है मुझको कभी-कभी करता हूं जैसे साफ-सफाई बाहर की मन का भी कर लूं वैचारिक कम बोझ ताकि कुछ जगह बने आधुनिक ज्ञान-विज्ञानों की। पर जाने कितनी सदियों के जैसे ही संचित अनुभव को कोशिश करता डालूं कचरे के डिब्बे में मोती की तरह चमकते हैं ढेरों विचार अनदेखी करने से लगता था जो कचरा अनमोल खजाने जैसा लगने लगता है इसलिये बनाने की बजाय कोरा मन को संचित करने की क्षमता अपनी बढ़ा सकूं इस कोशिश में लग जाता हूं। जब नये विचारों रूपी अपनी टॉर्च जला संचित निधियों का करता गहन निरीक्षण उससे होते जाते हैं प्रस्फुटित विचार नये कुंती ने क्यों गिरधारी से मांगा दु:ख का वरदान लिखा क्यों तुलसी ने रामायण में तपबल से दुनिया चलती है, तपबल से महिमा पाते हैं क्यों ब्रह्मा-विष्णु-महेश झेलकर ही क्या चौदह वर्षों का वनवास राम भगवान रूप बन पाये थे? तेरह वर्षों तक पाण्डव वन में भटके थे क्या इसीलिये वे युद्ध महाभारत का जय कर पाये थे? अनगिनत सवालों पर ऐसे जब करने लगता हूं विचार होने लगता महसूस कि संचित निधि के बल पर होता जाता कई गुना समृद्ध नजर आती थीं जो अति कठिन सभी उन चुनौतियों का हल मुझको अब सरल दिखाई पड़ता है। रचनाकाल : 24...

पारस पत्थर

आते थे जब भी विघ्न मुझे लगता था कितनी जल्दी इनसे मुक्ति मिले दिनचर्या सारी हो जाती थी अस्त-व्यस्त चौबीसों घण्टे चिंता उसकी रहती थी। पर एक विघ्न जैसे होता था दूर सांस राहत की लम्बी ले भी पाता नहीं कि बाधा नयी दूसरी फिर पैदा हो जाती थी तब लगा कि जीवन ऐसे तो सब चिंता में ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा! इसलिये बीच चिंताओं के ही जीवन को अनुशासित करना सीख लिया कितना भी हो चाहे तनाव दिनचर्या हर हालत में नियमित रखता हूं बाधाएं तो अब भी पहले सी आती हैं पर दंश नहीं पहले के जैसा होता है संकट भी अवसर जैसा बनता जाता है अनुशासन का पारस पत्थर धीरे-धीरे लोहे को सोने में परिवर्तित करता जाता है। रचनाकाल : 20-24 मई 2024

जहं-जहं चरण पड़े संतन के, तहं-तहं बंटाढार...!

 महान वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग ने कभी कहा था कि ‘इंसानों को अपने अंत से बचने के लिए पृथ्वी छोड़कर किसी दूसरे ग्रह को अपनाना चाहिए.’ उन्होंने चाहे जिस संदर्भ में यह बात कही हो, परंतु जिस तरह से हम मनुष्य अंतरिक्ष में भी युद्ध लड़ने की अपनी क्षमता का विस्तार कर रहे हैं, उससे शायद मानव जाति के लिए कोई भी ग्रह सुरक्षित नहीं रह गया है! खबर है कि स्पेस में चीन और रूस के बढ़ते अभियानों से अमेरिका को लग रहा है कि उसकी सेना, जमीन पर स्थित उसके फौजी ठिकानों और अमेरिकी सैटेलाइट के लिए खतरा बढ़ गया है. इसलिए अमेरिकी प्रतिरक्षा विभाग - पेंटागन ने अंतरिक्ष में युद्ध लड़ने की क्षमता का विस्तार करने के लिए तेजी से काम शुरू किया है. अमेरिका की चिंता इन खबरों से ज्यादा बढ़ गई है कि रूस स्पेस में परमाणु हथियार बना रहा है और चीन ने उसकी सेना को निशाना बनाने के लिए स्पेस में कई साधन तैनात किए हैं. दुनिया के इन्हीं महाशक्ति कहे जाने वाले देशों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए धरती को युद्ध का मैदान बना रखा है. अब जिस तरह से हम अंतरिक्ष को भी युद्ध क्षेत्र बनाते जा रहे हैं, हम इंसान बचें न बचें, लेकिन जिस-...

पागल की सीख

पहले जब कोई करता था दोषारोपण झूठा मुझ पर बेहद व्याकुल हो जाता था मन कई दिनों इससे रहता था खिन्न संभलने लगता था जब कुछ-कुछ पत्थर फिर कोई आकर मुझको लग जाता था। प्रतिघात किसी पर करना तो था ही स्वभाव में नहीं स्वयं की चमड़ी ही मोटी कर लूं हो सके ताकि कम दर्द मगर संभव हो पाया नहीं तभी सहसा मैंने देखा पागल को एक   मारता था पत्थर कोई तो वह हंस देता था। हो गई अचानक दूर खिन्नता सारी उस पागल ने मानो गुरुमंत्र दे दिया याद आया कि बहुत से आये थे ऐसे मौके जब नहीं मिला था मुझको अपने अपराधों का दण्ड इसलिये जब भी कोई करता है मुझ पर प्रहार उन कर्मों का ही दण्ड मान मैं स्वेच्छा से सह लेता हूं उस पागल की ही तरह सदा हंसने की कोशिश करता हूं यद्यपि उसके जैसा समदर्शी बनने में मुझको शायद लम्बी दूरी तय करना है! रचनाकाल : 19 मई 2024

ईश्वरेच्छा बलीयसी

जब खुद पर मेरा नहीं नियंत्रण था कोई मैं आज सोच कर रह जाता हूं कांप कि पूरी हो जातीं यदि इच्छाएं तो क्या होता? रस्सी के भ्रम में बच्चा जैसे सांप पकड़ लेने की इच्छा रखता है मेरी भी ख्वाहिश सुधा समझ विष को पीने जैसी ही थी अहसान इसलिये ईश्वर का मुझ पर तो इतना ज्यादा हैै मैं कभी उऋण हो ही सकता हूं नहीं कि इच्छा के विरुद्ध जाकर भी  उसने मेरी मुझको नीचे गिरने से कई बार बचाया है। वरदान मांगने का मुझको मौका यदि कभी मिलेगा तो मैं यही मांगना चाहूंगा जिसका खुद पर हो नहीं नियंत्रण यदि पूरा हे ईश्वर तू उसकी कोई इच्छा न कभी पूरी करना कितना भी कोसें हम मनुष्य तुझको लेकिन जो लगे हमारी खातिर ठीक वही करना। रचनाकाल : 17 मई 2024

अनंत पथ के यात्री

जीवन भर रहा अपूर्ण मगर कोशिश करता ही रहा सदा बन पाने की सम्पूर्ण जिंदगी मेरी अनथक संघर्षों की गाथा है। पर्वत शिखरों की तरह मिले थे ऐसे बिंदु अनेक जहां पर लगा कि दे दूं यात्रा को विश्राम मान लूं मंजिल उन शिखरों को लेकिन रुक ही पाया नहीं देर तक कहीं न जाने कैसी थी बेचैनी बस चलता ही रहा निरंतर कोशिश करता रहा कि अपनी कर लूं कमियां सारी दूर मगर जितना ही बढ़ता गया राह उतनी ही मिलती गई परिष्कृत जितना होता गया हमेशा उतना लगता गया कि इससे भी ज्यादा निर्मल खुद को कर सकता हूं! सोचा करता था कभी कि करके अथक परिश्रम जीवन भर चिर निद्रा में जब हो जाऊंगा लीन मिटा लूंगा थकान तब सारी लेकिन लगता है अब नहीं मृत्यु भी हो सकती अंतिम पड़ाव मरते ही फिर से लेना होगा जनम दौड़ में नये सिरे से जुटना होगा फिर से जैसे सूरज-चांद सितारे लेते नहीं एक पल की खातिर विश्राम चलेगा जब तक यह ब्रह्माण्ड हमें भी बिना रुके चलना होगा अनवरत कि मंजिल मृग मरीचिका होती है चलना ही शाश्वत होता है। रचनाकाल : 15 मई 2024

कमर के नीचे किए जाते वार और विकास के नाम पर होता विनाश

 लड़ाइयां तो हमेशा से होती रही हैं परंतु प्राचीन काल में इसके कुछ नियम हुआ करते थे. सूरज डूबने के बाद कोई एक-दूसरे पर वार नहीं करता था. रात में लोग दुश्मनों के खेमे में भी बेझिझक जाकर मिलते-जुलते थे. कुछ सौ साल पहले तक राजपूत राजा भी शरणागत की रक्षा अपनी जान देकर करते थे. यहां तक कि कुछ दशक पहले भी कहा जाता है कि राजनीतिक दुश्मनों के निजी जीवन में घनिष्ठ संबंध होते थे और वे एक-दूसरे पर ‘कमर के नीचे’ वार नहीं करते थे. फिर हमारे जमाने को ये क्या हो गया है कि राजनीतिक लाभ के लिए किसी को गाड़ने, कब्र खोदने, गायब कराने की धमकी देने या रेप तक के आरोप को राजनीतिक हथियार बनाना हमारी राजनीति की पहचान बन गई है! हो सकता है भविष्य में राजनीति का स्तर जब और गिरे तो तुलनात्मक रूप से हमें अपने आज के अपराध हल्के लगने लगें और हम भी शेखी बघार सकें कि इतने गिरे हुए तो हमारी पीढ़ी के लोग भी न थे! लेकिन नई पीढ़ी अगर समझदार निकली तो? तब क्या हमें चुल्लू भर पानी भी डूब मरने को मिलेगा और इतिहास के पन्नों में मनुष्यता की गिरावट के सबसे बदतर काल के लिए हमारी पीढ़ी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा! जिम्मेदार त...

दु:ख-कष्टों का आनंद

सब सुविधाओं के बीच, बैठ रमणीक स्थलों पर लगता तो है आसान बहुत कविता लिखना हसरत लेकिन यह होती है आपाधापी के बीच, शोरगुल में रहकर जीवन जैसा जीते हैं हरदम आम लोग वैसा ही जीकर, फिर भी कुछ लिख सकूं अगर सुख अनुपम मिल पायेगा कवि कहलाने में। पर्वत शिखरों के बीच लगाना ध्यान जिंदगी निरासक्त होकर जीना, मुझको आकर्षित करता है जीवन के कोलाहल में पर, दुश्चिंताओं के बीच लगा पाऊं कुछ पल को ध्यान, हो सकूं अनासक्त कोशिश में ही मैं हरदम इसकी रहता हूं। सुंदर लगते हैं फूल मुझे, पर कभी तोड़ता नहीं उन्हें छूने से भी चोटिल वे हो जायेंगे, यह डर लगता है सुख भी ऐसे ही सुखकर तो लगते हैं पर मैं नहीं भोगता उन्हें कि इससे  मैला उनके होने का भय लगता है। रचनाकाल : 9 मई 2024

अज्ञात का रोमांच

डर लगता था पहले मुझको अनजानी सारी चीजों से हर चीज चाहता था कि सुनिश्चित पहले से करके रख लूं संभावित सारी बाधाएं कर दूर सुरक्षित जीवन यह सारा कर लूं। पर होते ही सारी चिंताएं दूर नहीं रह गया कोई रोमांच जिंदगी बोझिल लगने लगी काटना एक-एक दिन दूभर होने लगा इसलिये मैंने फिर से आमंत्रित कर लिया जोखिमों-खतरों को। भयभीत नहीं होता हूं अब बाधाओं से कर लेता सारी चुनौतियां स्वीकार जिंदगी में बढ़ता ही जाता है रोमांच नजरिया जबसे बदल लिया मैंने जिन चीजों में पहले होता दु:ख-कष्ट उन्हीं में सुख अब अनुपम मिलता है। रचनाकाल : 7 मई 2024

उनकी तू-तू मैं-मैं, हिंसा पीड़ित बचपन और हीटवेव का हाहाकार

 जिन्होंने भी सास-बहू की तू-तू मैं-मैं सुनी होगी, वे जानते होंगे कि उनके बीच शब्दों के व्यंग्य-बाण किस तरह छोड़े जाते हैं. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में वे अपने तरकश में शब्दों के नायाब तीरों का इजाफा करती रहती हैं! राजनीति में भी लगता है इन दिनों यही हो रहा है. एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए नए-नए नुकीले शब्द गढ़े जा रहे हैं. दुनिया के और किसी देश में शायद इस तरह की चटपटी राजनीतिक लड़ाई नहीं होती होगी! कदाचित यह हम भारतीयों की ही विशेषता है कि जहां भी तमाशा होता है, हम मजमा लगा कर देखने लगते हैं और वोट पाने के लालच में हमारे कुछ नेता मसखरों जैसा बर्ताव करने में भी नहीं हिचकते. लेकिन हमारे नेताओं को क्या पता है कि इस नूरा-कुश्ती से देश को कोई लाभ नहीं होगा! उनको पता हो, न हो, जनता को यह पता होना चाहिए कि विकास के असली मुद्दों की कीमत पर रचे जा रहे इस प्रहसन में उसे मजा भले ही आए लेकिन इससे उसका भला होने वाला नहीं है.   भला तो दुनिया में होने वाली लड़ाइयों से बच्चों का भी नहीं हो रहा है. वे दिन हवा हुए जब लोग एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी होते थे. अब कोई मरे या जिये, ...

वांछित-अवांछित

मैं ये सोचता था कि सृष्टि में सबसे अधिक ज्ञानी बस हम इंसान हैैं दुनिया बनी है हम मनुष्यों के लिये सब पेड़-पौधे, जीव सचराचर कभी जब हो सकेंगे पूर्ण विकसित तब दिखेंगे शायद हम जैसे सभी! किंतु जब तुलना शुरू की गुण अधिक हैैं पास किसके हो गया यह देख करके स्तब्ध सारे जीव सचराचर प्रकृति से ले रहे जितना कहीं उससे अधिक वे दे रहे संसार को बस एक हम ही जीव हैैं जो दे रहे कुछ भी नहीं इस विश्व को नुकसान ही पहुंचा रहे हैैं प्रकृति को! होता अगर है जीव कोई लुप्त दुनिया से असर पड़ता समूची श्रृंखला पर प्रकृति के इंसान लेकिन हम अगर ले लें विदा क्या तनिक भी तब काम दुनिया का रुकेगा? जिस तरह कुछ माह में ही प्रकृति निखरी थी लगा था लॉकडाउन जब कोरोना-काल में लगता मुझे है डर कि धरती चाहती है खत्म हो जायें सभी हम आदमी इस जगत से! जिसको समझते थे प्रकृति में हम अभी तक उच्चतर इंसान हम इस सृष्टि में ही हैैं नहीं क्या निम्नतर? बनकर अवांछित चाहता मैं नहीं जीना धरा पर कोशिश सदा इसलिये करता ले रहा हूं प्रकृति से जितना उसे लौटा सकूं मय ब्याज के। रचनाकाल : 5 मई 2024

ख्वाहिश

ये जो दीखता है पहाड़-सा मैं हूं काम कर चुका ढेर-सा ये न सोचना कि थका नहीं कि हूं बैल मैं इंसां नहीं मुझे कुछ न बदले में चाहिये मैंने जो दिया सब मुफ्त है बस एक छोटी सी अर्ज है कभी जिक्र जब भी चले मेरा चेहरे में ला लेना चमक सम्मान से भर लेना मन मेरी जिंदगी भर की थकन उस वक्त दूर हो जायेगी मेहनत सफल हो जायेगी। मैं ये रहता व्याकुल देखकर कि जो पालती हमें धरती मां बर्ताव उसके ही साथ हमने ये क्या किया बर्बाद पर्यावरण सब क्यों कर दिया? नि:स्वार्थ भाव से फल हमें ये जो देते पौधे-पेड़ सब करते हमारा काम जो दुत्कारते उन्हें बैल कह! मैं नहीं अभी तक बन सका हूं सहनशील उनकी तरह इतनी उपेक्षा इसलिये शायद नहीं सह पाऊंगा कितनी भी कर लूं कोशिशें आखिर तो मैं इंसान हूं जो गुण प्रकृति के पास हैं हासिल उन्हें करने को मुझको जन्म लेने होंगे शायद सैकड़ों! रचनाकाल : 3 मई 2024