पारस पत्थर


आते थे जब भी विघ्न
मुझे लगता था कितनी जल्दी इनसे मुक्ति मिले
दिनचर्या सारी हो जाती थी अस्त-व्यस्त
चौबीसों घण्टे चिंता उसकी रहती थी।
पर एक विघ्न जैसे होता था दूर
सांस राहत की लम्बी ले भी पाता नहीं
कि बाधा नयी दूसरी फिर पैदा हो जाती थी
तब लगा कि जीवन ऐसे तो
सब चिंता में ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा!
इसलिये बीच चिंताओं के ही
जीवन को अनुशासित करना सीख लिया
कितना भी हो चाहे तनाव
दिनचर्या हर हालत में नियमित रखता हूं
बाधाएं तो अब भी पहले सी आती हैं
पर दंश नहीं पहले के जैसा होता है
संकट भी अवसर जैसा बनता जाता है
अनुशासन का पारस पत्थर
धीरे-धीरे लोहे को सोने में
परिवर्तित करता जाता है।
रचनाकाल : 20-24 मई 2024

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