कमर के नीचे किए जाते वार और विकास के नाम पर होता विनाश

 लड़ाइयां तो हमेशा से होती रही हैं परंतु प्राचीन काल में इसके कुछ नियम हुआ करते थे. सूरज डूबने के बाद कोई एक-दूसरे पर वार नहीं करता था. रात में लोग दुश्मनों के खेमे में भी बेझिझक जाकर मिलते-जुलते थे. कुछ सौ साल पहले तक राजपूत राजा भी शरणागत की रक्षा अपनी जान देकर करते थे. यहां तक कि कुछ दशक पहले भी कहा जाता है कि राजनीतिक दुश्मनों के निजी जीवन में घनिष्ठ संबंध होते थे और वे एक-दूसरे पर ‘कमर के नीचे’ वार नहीं करते थे. फिर हमारे जमाने को ये क्या हो गया है कि राजनीतिक लाभ के लिए किसी को गाड़ने, कब्र खोदने, गायब कराने की धमकी देने या रेप तक के आरोप को राजनीतिक हथियार बनाना हमारी राजनीति की पहचान बन गई है! हो सकता है भविष्य में राजनीति का स्तर जब और गिरे तो तुलनात्मक रूप से हमें अपने आज के अपराध हल्के लगने लगें और हम भी शेखी बघार सकें कि इतने गिरे हुए तो हमारी पीढ़ी के लोग भी न थे! लेकिन नई पीढ़ी अगर समझदार निकली तो? तब क्या हमें चुल्लू भर पानी भी डूब मरने को मिलेगा और इतिहास के पन्नों में मनुष्यता की गिरावट के सबसे बदतर काल के लिए हमारी पीढ़ी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा!

जिम्मेदार तो विकास के नाम पर हासिल की जाने वाली उपलब्धियों के भी हम ही हैं, पर वे खुश करने से ज्यादा डराने क्यों लगी हैं? एक हालिया अध्ययन के अनुसार पिछले साल 2023 में हर चार में से एक भारतीय किसी न किसी तरह वाॅयस क्लोनिंग का शिकार हुआ है. एआई हम इंसानों के लिए क्रांति साबित होने वाली थी, पर यह तो ठगों के लिए क्रांति साबित होती जा रही है! डीपफेक से माथे पर चिंता की लकीरें मिटी नहीं थीं कि वाॅयस क्लोनिंग ‘एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा’ की कहावत को चरितार्थ करने लगी है. कहते हैं एक राजा को ऐसा वरदान मिला था कि वह जिस भी चीज को छूता था, वह सोने की हो जाती थी. आज के हम इंसानों को क्या कोई अभिशाप मिला है कि सारे वरदान भी हमारा हाथ लगते ही नुकसान बन जाते हैं!

नुकसान तो हमारे ‘भक्ति-भाव’ से प्रकृति को भी कम नहीं हो रहा है. चार धाम की जो यात्रा कभी इतनी दुर्गम मानी जाती थी कि मृत्यु का जोखिम उठाने वाले ही उस पथ पर चलते थे, आधुनिक विकास ने उस यात्रा को इतना सुगम बना दिया है कि यमुनोत्री की सड़क पर एक-दो नहीं, पूरे 15 किमी लंबा जाम लग रहा है. जिस एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ना कभी इतिहास रचने के समान होता था, उन्हीं शिखरों के मार्ग पर हमने टनों कचरा फैलाने का इतिहास रच दिया है. श्रद्धा और साहस तो सद्‌गुणों में गिने जाते थे, फिर आज हमारे ये गुण प्रकृति के लिए विनाशकारी क्यों साबित हो रहे हैं? कहा जाता है कि पुराने जमाने में शिक्षा का उद्देश्य हम मनुष्यों की मनुष्यता का विकास करना होता था, क्योंकि जो उस्तरा नाई के हाथ में हजामत बनाने का उपकरण होता है, वही बंदर के हाथ लगने पर उत्पात मचाने का हथियार बन जाता है. विकास तो हमने खूब किया, परंतु पुरानी धूल झाड़ने के चक्कर में कहीं हमने उन मानवीय सद्‌गुणों को तो डस्टबिन में नहीं डाल दिया है, जिसके अभाव में अमृत भी विष बन जाता है! 

(15 मई 2024 को प्रकाशित)

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