पागल की सीख
पहले जब कोई करता था
दोषारोपण झूठा मुझ पर
बेहद व्याकुल हो जाता था
मन कई दिनों इससे रहता था खिन्न
संभलने लगता था जब कुछ-कुछ
पत्थर फिर कोई आकर मुझको लग जाता था।
प्रतिघात किसी पर करना तो
था ही स्वभाव में नहीं
स्वयं की चमड़ी ही मोटी कर लूं
हो सके ताकि कम दर्द
मगर संभव हो पाया नहीं
तभी सहसा मैंने
देखा पागल को एक
मारता था पत्थर कोई तो
वह हंस देता था।
हो गई अचानक दूर खिन्नता सारी
उस पागल ने मानो गुरुमंत्र दे दिया
याद आया कि बहुत से
आये थे ऐसे मौके
जब नहीं मिला था मुझको अपने
अपराधों का दण्ड
इसलिये जब भी कोई
करता है मुझ पर प्रहार
उन कर्मों का ही दण्ड मान
मैं स्वेच्छा से सह लेता हूं
उस पागल की ही तरह सदा
हंसने की कोशिश करता हूं
यद्यपि उसके जैसा समदर्शी बनने में
मुझको शायद लम्बी दूरी तय करना है!
रचनाकाल : 19 मई 2024
Comments
Post a Comment