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Showing posts from August, 2024

अपने भीतर के रावण को मारने में मददगार किताबों का हथियार

 एक ऐसे दौर में, जबकि दुनियाभर में लड़ाई-झगड़े, मार-काट, रेप-गैंगरेप जैसे अपराधों का बोलबाला दिखाई देता है, कुछ खबरें ऐसी भी हैं जो उम्मीद जगाती हैं. अब जैसे सोलापुर के कैलाश काटकर के अनोखे सैलून को ही लें, जहां कटिंग या शेविंग कराने के पहले ग्राहकों के लिए किसी किताब के कुछ पन्ने पढ़ना अनिवार्य है. कैलाश ने सैकड़ों किताबें अपने सैलून की अलमारियों में जमा कर रखी हैं और चाहते हैं कि अपनी बारी का इंतजार करने वाले ग्राहक मोबाइल देखने में समय नष्ट करने के बजाय किताब पढ़ें. अच्छी किताबों में यह क्षमता होती है कि यदि कोई दो-चार पृष्ठ भी पढ़ ले तो फिर बिना पूरी किताब पढ़े रह नहीं सकता. इसलिए नियमित ग्राहक उनकी दुकान से किताबें पढ़ने के लिए घर भी ले जाते हैं. इसी तरह तमिलनाडु के थूथुकड़ी में सैलून चलाने वाले पोन मरियप्पन ने भी अपने सैलून में मिनी लाइब्रेरी खोल रखी है. गरीबी की वजह से मरियप्पन खुद तो आठवीं क्लास से आगे की पढ़ाई नहीं कर सके, लेकिन पढ़ने की आदत बनी रही और उन्हें लगा कि क्यों न अपने सैलून में ही लाइब्रेरी बनाई जाए. उन्होंने भी अपने सैलून में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर बैन लगा...

सुख-दु:ख का इस्तेमाल

मैं आम दिनों में तो अपने को रख लेता हूं अनुशासित पर हसरत होती है कि चरम दु:ख या सुख में भी डिगूं नहीं सिद्धांतों से आंधियां उड़ा ले जायें नहीं अभ्यास सतत यह करता हूं। सुख-दु:ख की अतियों में मुझको परमाणु बमों की तरह असीमित शक्ति समाई दिखती है जो क्षमता रखती सर्वनाश कर देने की पर साध सकूं यदि उसको तो परमाणु घरों की तरह असीमित ऊर्जा भी मिल सकती है। मुझको तो ऐसा लगता है कोयला असीमित सहकर जैसे दाब आखिरी में हीरा बन जाता है शिव जैसी यदि क्षमता हो तो हम हालाहल को भी अमृत में परिवर्तित कर सकते हैं सुख-दु:ख सबको आत्मोन्नति का पाथेय बना सकते हैं। रचनाकाल : 25 अगस्त 2024

इंसानों में हैवान

मैं रह जाता हूं सन्न देखकर दुनिया में अपराधों को पर करता जब प्रतिकार भुगतना पड़ता है उसको ही जो पहले से पीड़ित होता है। सदमा तो तब लगता है जब अपराधी कोई मुझ जैसा ही सभ्य दिखाई देने वाला मिलता है कल्पना नहीं कर सकते, पर जो दिन में उजले वस्त्र पहन चिंता समाज के गिरते स्तर की करता है उसका ही रूप निशाचर जैसा दिन ढलने पर गहन रात में दिखता है! इसलिये नहीं अब करता हूं हड़ताल कि दिक्कत हो न मरीजों, लोगों को आक्रोश दिखाता नहीं, मचाकर तोड़फोड़ सरकारी जिसको कहते हैं नुकसान दरअसल जनता का वह होता है बस कोशिश करता मेरे जैसा दिखता जो इंसान अंधेरा होते ही हैवान रूप बन जाता है मैं भी न कहीं उसके जैसा ही बन जाऊं इसलिये स्वयं की ही हर पल करता रहता हूं निगरानी अब नहीं दीखते अलग-अलग कौरव-पाण्डव सज्जन में ही दुर्जन का भी अब अक्स दिखाई देता है। रचनाकाल : 20 अगस्त 2024

सफेदपोश नागरिकों की दुनिया में कौन हैं नकाबपोश निशाचर ?

 कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में एक ट्रेनी डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या की जघन्य वारदात से पूरा देश उबल रहा है. जगह-जगह धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं, डॉक्टरों की हड़ताल हो रही है. इसी क्रम में 14-15 अगस्त की दरम्यानी रात जब उस अस्पताल के सामने भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हुई तो वहां के डॉक्टरों को लगा कि वह उनके समर्थन में है, क्योंकि भीड़ मृतका को न्याय देने की मांग वाले नारे लगा रही थी. लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही जब विशाल आकार ले चुकी भीड़ ने अस्पताल पर हमला कर दिया और भीतर घुस कर तोड़-फोड़ करने लगी, तब वहां के कर्मचारियों को अहसास हुआ कि ये तो दोस्त नहीं, दुश्मन हैं! अब सभी राजनीतिक दल आरोप लगा रहे हैं कि ये गुंडे उनके नहीं, प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के थे. जो भीड़ मृतका को न्याय दिलाने की मांग कर रही थी, उसी ने अस्पताल में उत्पात मचाकर उन सारे सबूतों को नष्ट कर दिया, जो अपराधियों को सजा दिलाने में सहायक हो सकते थे.  पूरा देश गुस्से से उबल रहा है, लेकिन रेप, गैंगरेप और हत्या की घटनाएं फिर भी देश के प्राय: सभी हिस्सों से सामने आ रही हैं. तीन दिन पहले ही उत्तराखंड के उधम...

हिंसा और अहिंसा

होता है अचरज गहन कि इतनी हिंसक क्यों है दुनिया कुत्ते खाते हैं बिल्ली को बिल्ली खा जाती है चूहा शेरों का भोजन है हिरन बिना हिंसा के क्या यह सृष्टि नहीं चल सकती थी? जंगल का ऐसा भले रहे कानून मगर हम इंसानों ने क्यों इसको स्वीकार किया क्यों नहीं हमें करुणा ऐसी हिंसा से विचलित करती थी? है नहीं विरासत से मुझको इनकार मगर व्याकुल करता है खून भरा इतिहास बिना क्या रक्तपात के मानवता की होनी प्रगति असम्भव थी? डर लगता नहीं जरा भी दे देने में अपनी जान मगर औरों की लेना जान मुझे मरणांतक पीड़ा देता है हूं परम भाग्यशाली कि खोजनी नहीं मुझे नई राह दिया गांधीजी ने सत्याग्रह का हथियार उसी के बल पर पूरी ताकत से लड़ सकता हूं। हो भले मनुष्येतर जीवों का बर्बर शक्ति विधान मगर मानवता उससे कभी नहीं बढ़ सकती है हिंसा करती सब खत्म अहिंसा में ही क्षमता नया सृजन करने की है। रचनाकाल : 18 अगस्त 2024

अपूर्णता

शक्ति थी अपार जब शरीर में मिल न पाई थी दिशा कि कैसे सदुपयोग करूं जब मगर दिशा मिली सुनहरी उम्र ढल गई बची-खुची बटोर अपनी शक्तियां किसी तरह से इंच-इंच बढ़ सकूं यही बस एक दीखता उपाय है। सही कहा था अपने अंतिम दिनों में बहुमुखी कलाओं के धनी रहे टैगोर ने कि साधने की कोशिशों में बीत गई जिंदगी सुर मगर सधे तो मृत्यु सामने खड़ी मिली! ये कैसा है नियम विचित्र सृष्टि का हरेक चीज में दिखाई देती है अपूर्णता कि मृग मरीचिका के पीछे भागना ही हम सभी की नियति है! रचनाकाल : 14 अगस्त 2024

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता

सिर पर न मेरे जब थीं जिम्मेदारियां स्वच्छंदता को ही मैं समझता रहा स्वतंत्रता देकर के नाम क्रांति का मचाई खूब अराजकता भूमिका समय के साथ किंतु अब बदल गई जिनके विरुद्ध क्रांति की, उन्हीं का स्थान ले लिया विद्रोह जो भी करता बगावत का नाम देता हूं नवयुवकों के आक्रोश को आवारागर्दी कहता हूं पीढ़ियों से चल रहा संघर्ष यही पीढ़ियों में कौन तय करे कि क्रांति है ये, या विद्रोह है? रचनाकाल : 15 अगस्त 2024

प्रशासकों का बेतुकापन और अंधेर नगरी के अवशेष

 न्याय होना और होते हुए देखना किसे अच्छा नहीं लगता! जो तार्किक होता है, वही न्यायपूर्ण भी लगता है और जहां तर्क गायब होने लगता है, वहां अन्याय महसूस कर आक्रोश पनपने लगता है. लेकिन आज के विवेकशील माने जाने वाले जमाने में भी कई बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं जिनके पीछे का तर्क समझना मुश्किल लगने लगता है. अब जैसे ओलंपिक खेलों में विनेश फोगाट को रजत पदक से वंचित किए जाने के मामले को ही लें. भले ही ओलंपिक कमेटी ने अपने नियमों के दायरे में रहकर ही विनेश को अयोग्य ठहराया, लेकिन नियमों को तार्किक तो होना चाहिए! फाइनल में विनेश के वजन बढ़ने का खामियाजा उनको पिछली तारीख से भुगतने के लिए मजबूर कैसे किया जा सकता है! यह कोई डोप टेस्ट तो था नहीं कि खिलाड़ी ने चीटिंग करके मैच जीता हो! दुनिया की इस सबसे प्रतिष्ठित खेल प्रतियोगिता के लिए नियम-कानून बनाते समय कम से कम इतना तो ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे मनमाने न लगें! इसी तरह दिल्ली में कहते हैं बिजली और पानी एक निश्चित सीमा तक फ्री है लेकिन तय सीमा से जरा भी ज्यादा खपत होने पर पूरे उपभोग का पैसा देना पड़ता है. ऐसे में कोशिश करने पर भी जिसका इस्तेमाल त...

बर्बरता का बोलबाला

आदिम तो थे हम लाखों वर्षों से ही, पर होने अभिमान लगा था यह जंगली प्राणियों से हटकर हम मानव दुनिया में विवेक से चलते हैं पशुबल को हावी होने देते नहीं तर्क से ही अपने मसले सारे सुलझाते हैं। पर समय-समय पर होने वाले युद्ध तोड़ते हैं इस भ्रम को बुरी तरह साबित कर देते हैं आखिर तो बर्बरता दुनिया में सबसे बढ़कर है कितना भी खुद को कहें विवेकी मानव हम आखिर में तो विजयी पशुबल ही होता है जो त्याग-तपस्या करते थे ऋषि-मुनि पहले उनको भी धनुर्धरों की ही लेनी पड़ती थी मदद सुरक्षा की खातिर युद्धों से ही हर राजा अपना राज्य बढ़ाया करता था। घनघोर तिमिर में भी पर लाखों वर्षों के जुगनू की तरह चमकते दिखते गांधीजी तलवार-तीर-भालों का करने मुकाबला सत्याग्रह का हथियार दिखाई पड़ता है जिसके बल पर खुद की रक्षा मानव अविवेकी बने बिना कर सकता है। बीते तो नहीं बहुत दिन पर धुंधले होते जाते उनके पदचिह्न समूची दुनिया में पशुबल का फिर शासन दिखलाई पड़ता है उम्मीद नजर आई थी जो मानवता की क्या हो जाएगी लुप्त अंत में बर्बरता ही जीतेगी? रचनाकाल : 4-8 अगस्त 2024

दुनिया में लोकतंत्र पर मंडराता संकट और उम्मीद बंधाते गांधीजी

 बांग्लादेश में छात्रों ने जिस तरह से सरकार का तख्ता पलट दिया है, उससे लोकतंत्र के शुभचिंतकों को खुश होना चाहिए या चिंतित? सवाल यह नहीं है कि उनकी मांगें क्या थीं और सरकार का रवैया क्या था. सवाल विरोध प्रदर्शन के तरीके को लेकर है. वैसे कहा यह भी जा रहा है कि आरक्षण तो सिर्फ एक बहाना था, आंदोलनकारी असल में हसीना सरकार को हटाना चाहते थे. लेकिन हसीना सरकार अगर इतनी ही जनविरोधी थी तो अभी सात माह पहले ही जनता ने उन्हें भारी बहुमत से चुना क्यों था? भले ही ढाका में सड़कों पर उतरे आंदोलनकारियों की संख्या चार-पांच लाख रही हो लेकिन चार-पांच करोड़ से भी अधिक मतों से चुनी गई सरकार को इतने अराजक तरीके से सत्ता से हटाना ही क्या लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर है? हालांकि कहने वाले यह भी कहते हैं कि निहित स्वार्थों वाली विदेशी ताकतों ने छात्रों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई है, लेकिन देश के भावी कर्णधारों को इतना कच्चा तो नहीं होना चाहिए कि किसी का मोहरा बन जाएं! सवाल सिर्फ बांग्लादेश का नहीं है. कुछ साल पहले श्रीलंका में भी हमने ऐसा ही दृश्य देखा था और अफगानिस्तान में भी. अराजक भीड़ का प्रधानमंत्री या रा...

प्रशासन का बेतुकापन और अंधेर नगरी के अवशेष

 न्याय होना और होते हुए देखना किसे अच्छा नहीं लगता! जो तार्किक होता है, वही न्यायपूर्ण भी लगता है और जहां तर्क गायब होने लगता है, वहां अन्याय महसूस कर आक्रोश पनपने लगता है. लेकिन आज के विवेकशील माने जाने वाले जमाने में भी कई बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं, जिनके पीछे का तर्क समझना मुश्किल लगने लगता है. अब जैसे आयकर विभाग द्वारा सात लाख की आय तक शून्य टैक्स और इसके ऊपर आय होने पर तीन लाख रुपए से टैक्स लगने के मामले को ही लें. कई लोगों को तो यह समझना ही उलझन भरा लगता है कि वास्तव में टैक्स तीन लाख से लगेगा या सात लाख से? वह तो भला हो रिटर्न भरने में मदद करनेवाले पेशेवरों का, जो चार-पांच सौ रुपए लेकर इस माथापच्ची में सिर खपाने से लोगों को मुक्त कर देते हैं; लेकिन जिनकी आय साढ़े सात से आठ लाख के बीच हो, उनको समझा पाना पेशेवरों के लिए भी कठिन हो जाता है. अब जैसे साढ़े सात लाख (पचास हजार स्टैंडर्ड डिडक्शन मिलाकर) की कमाई वाले नौकरीपेशा लोगों को टैक्स शून्य है, जबकि पौने आठ लाख कमाने वाले को 25 हजार रु. से भी अधिक टैक्स भरना पड़ा है. हो सकता है इसके पीछे कोई तर्क हो, क्योंकि सरकार के पास ब...

खेती कर्मों की

जब समय बुरा आता है अच्छे कर्मों का भी फल तत्काल नहीं मिलता घनघोर निराशा होती है पर ऐसे ही मौकों पर रखना धीरज देता काम भले ही बीज नहीं उग पायें लेकिन नहीं छोड़ता बोना अपनी श्रद्धा रखता अडिग कि चाहे समय लगे कितना भी होंगे फलीभूत ही अच्छे कर्म कभी न कभी। लाता है यह विश्वास रंग कट जाता है जब बुरा समय उन दिनों बीज बोये थे जो कर्मों के बंजर लगते थे आते ही अच्छा समय वही फलदार वृक्ष बन जाते हैं छूते ही मिट्टी भी सोना बन जाती है सब कहते हैं यह किस्मत है पर मुझे पता है बुरे समय में नहीं मिला था मुझको जो यह उन कर्मों का ही फल है। इसलिये समय हो अच्छा या फिर बुरा बीज कर्मों का बोना नहीं छोड़ता कभी कि कुुछ पौधे जल्दी फल देते हैं कुछ देते हैं वर्षों में कुछ को बनने में फलदार मगर कई सदियां भी लग जाती हैं जो मिलता अगले जन्मों में वह भी किस्मत का नहीं हमारे कर्मों का फल होता है। रचनाकाल : 3 अगस्त 2024

कोमल और कठोर

देख नहीं पाता हूं भीतर की अपने कमजोरियां दूसरों को दीखतीं जो साफ-साफ गढ़ लेता तर्क मन अपने सारे कामों को साबित कर लेता है तार्किक। इसीलिये करता हूं कोशिश कि दूसरों की नजरों से देखा करूं स्वयं को दूसरों को दीखतीं जो गलतियां दूर करूं उनको निर्ममता से दूसरों की दीखतीं जो गलतियां देख सकूं उनको सहृदयता से तर्क उनके पास है जो समझ सकूं। रखकर सहानुभूति दूसरों से प्रेरित कर सकता हूं दूर करें अपनी वे गलतियां अपने प्रति लेकिन कठोर हो करता हूं दूर कमजोरियां भीतर से कोमल जैसे होता है नारियल बाहर से सख्त होकर खुद को बचाता है बाहर से लाता मैं कोमलता भीतर से सख्त होकर खुद को तपाता हूं। रचनाकाल : 29-31 जुलाई 2024

कमाई का मेहनत से टूटता संबंध और मुफ्तखोरी को मिलती वैधता

  ‘‘सर, मुझे काम चाहिए, भीख नहीं. काम अगर कल से करने आना है तो कल ही ये पैसे दीजिएगा, इतने दिन भूखा रहा तो एक दिन और रह लेने से मर नहीं जाऊंगा.’’ युवक कहकर मुड़ा और वापस चला गया. वह उसे तब तक जाते देखता रहा, जब तक कि वह नजरों से ओझल नहीं हो गया... किसी कहानी में पढ़ा गया यह अंश बहुत दिनों तक मन में गूंजता रहा था. लगा कि मानवीय गरिमा ऐसी ही होनी चाहिए...जान भले ही जाए लेकिन आत्मसम्मान नहीं जाना चाहिए.  यह सच है कि काम मिलना आसान नहीं होता(बढ़ती बेरोजगारी इसका ज्वलंत उदाहरण है). काम देने वाले कई बार शोषण भी कम नहीं करते और वहीं से होती है अन्याय की शुरुआत. प्रतिक्रिया में पैदा होता है आक्रोश और इससे टकराव का जो सिलसिला पैदा होता है, उसका कहीं अंत नहीं होता. इसीलिए जब सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की तो करोड़ों लोगों को गरिमा के साथ जीने का वह अधिकार वास्तव में मिला, जो उन्हें संविधान देता है. लेकिन फिर पता नहीं क्या हुआ कि सरकारों ने धीरे-धीरे चीजें फ्री में बांटनी शुरू कर दीं! तो क्या सरकारें इतना कमाती हैं कि लोगों का मुफ्त में पेट भर सकें? ...