प्रशासन का बेतुकापन और अंधेर नगरी के अवशेष
न्याय होना और होते हुए देखना किसे अच्छा नहीं लगता! जो तार्किक होता है, वही न्यायपूर्ण भी लगता है और जहां तर्क गायब होने लगता है, वहां अन्याय महसूस कर आक्रोश पनपने लगता है. लेकिन आज के विवेकशील माने जाने वाले जमाने में भी कई बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं, जिनके पीछे का तर्क समझना मुश्किल लगने लगता है. अब जैसे आयकर विभाग द्वारा सात लाख की आय तक शून्य टैक्स और इसके ऊपर आय होने पर तीन लाख रुपए से टैक्स लगने के मामले को ही लें. कई लोगों को तो यह समझना ही उलझन भरा लगता है कि वास्तव में टैक्स तीन लाख से लगेगा या सात लाख से? वह तो भला हो रिटर्न भरने में मदद करनेवाले पेशेवरों का, जो चार-पांच सौ रुपए लेकर इस माथापच्ची में सिर खपाने से लोगों को मुक्त कर देते हैं; लेकिन जिनकी आय साढ़े सात से आठ लाख के बीच हो, उनको समझा पाना पेशेवरों के लिए भी कठिन हो जाता है. अब जैसे साढ़े सात लाख (पचास हजार स्टैंडर्ड डिडक्शन मिलाकर) की कमाई वाले नौकरीपेशा लोगों को टैक्स शून्य है, जबकि पौने आठ लाख कमाने वाले को 25 हजार रु. से भी अधिक टैक्स भरना पड़ा है. हो सकता है इसके पीछे कोई तर्क हो, क्योंकि सरकार के पास बड़े-बड़े सलाहकारों की कमी तो है नहीं! लेकिन वह तर्क आम आदमी को भी समझा दिया जाए तो पौने आठ लाख कमाने वाला अपने को अन्यायपीड़ित (साढ़े सात लाख कमाने वाले के मुकाबले) महसूस करने से बच सकता है.
इसी तरह दिल्ली में कहते हैं बिजली और पानी एक निश्चित सीमा तक फ्री है लेकिन तय सीमा से जरा भी ज्यादा खपत होने पर पूरे उपभोग का पैसा देना पड़ता है. ऐसे में कोशिश करने पर भी जिसका इस्तेमाल तय सीमा से थोड़ा ज्यादा हो जाए, वह अपने मन में सरकार के प्रति आक्रोश पैदा होने से खुद को रोक नहीं पाता.
यह तो हुई बड़े-बड़े लेवल की बातें, छोटे स्तरों पर भी ऐसी घटनाएं कम नहीं होतीं जिन्हें समझने के लिए तर्क को सिर के बल खड़ा होना पड़े. कुछ साल पहले एसटी महामंडल ने एक रूट पर एक स्टाप का जो किराया रखा था, आधी-आधी दूरी की दो टिकट लेकर उस स्टाप तक कम पैसे में पहुंचा जा सकता था. ऐसा करने के पीछे एसटी महामंडल का तर्क जो भी रहा हो, लेकिन नियमित यात्रियों ने आधी-आधी दूरी के दो पास बनवाकर पैसे बचाना जरूर शुरू कर दिया था.
पुराने जमाने के शासकों के कई फैसले आज हमें बेतुके लगते हैं. अंग्रेजों तक ने अविभाजित भारत में एक पेड़ को इसलिये जंजीर से बंधवा दिया था कि नशे में धुत एक अंग्रेज अधिकारी को लगा कि वह पेड़ उसकी हत्या कर देगा. आज भी इस जंजीर बंधे पेड़ को लाहौर में देखा जा सकता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’ पता नहीं कभी सचमुच में थी भी या नहीं, बेतुकेपन की पराकाष्ठा मानकर आज हम उस पर हंसते जरूर हैं. लेकिन हर दौर के शासन में क्या कुछ न कुछ बेतुके काम होते हैं और हमारा अपना दौर भी इसका अपवाद नहीं है!
(अप्रकाशित)
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