प्रशासकों का बेतुकापन और अंधेर नगरी के अवशेष

 न्याय होना और होते हुए देखना किसे अच्छा नहीं लगता! जो तार्किक होता है, वही न्यायपूर्ण भी लगता है और जहां तर्क गायब होने लगता है, वहां अन्याय महसूस कर आक्रोश पनपने लगता है. लेकिन आज के विवेकशील माने जाने वाले जमाने में भी कई बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं जिनके पीछे का तर्क समझना मुश्किल लगने लगता है. अब जैसे ओलंपिक खेलों में विनेश फोगाट को रजत पदक से वंचित किए जाने के मामले को ही लें. भले ही ओलंपिक कमेटी ने अपने नियमों के दायरे में रहकर ही विनेश को अयोग्य ठहराया, लेकिन नियमों को तार्किक तो होना चाहिए! फाइनल में विनेश के वजन बढ़ने का खामियाजा उनको पिछली तारीख से भुगतने के लिए मजबूर कैसे किया जा सकता है! यह कोई डोप टेस्ट तो था नहीं कि खिलाड़ी ने चीटिंग करके मैच जीता हो! दुनिया की इस सबसे प्रतिष्ठित खेल प्रतियोगिता के लिए नियम-कानून बनाते समय कम से कम इतना तो ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे मनमाने न लगें!

इसी तरह दिल्ली में कहते हैं बिजली और पानी एक निश्चित सीमा तक फ्री है लेकिन तय सीमा से जरा भी ज्यादा खपत होने पर पूरे उपभोग का पैसा देना पड़ता है. ऐसे में कोशिश करने पर भी जिसका इस्तेमाल तय सीमा से थोड़ा ज्यादा हो जाए, वह अपने मन में सरकार के प्रति आक्रोश पैदा होने से खुद को रोक नहीं पाता. 

यह तो हुई बड़े-बड़े लेवल की बातें, छोटे स्तरों पर भी ऐसी घटनाएं कम नहीं होतीं जिन्हें समझने के लिए तर्क को सिर के बल खड़ा होना पड़े. कुछ साल पहले एसटी महामंडल ने एक रूट पर एक स्टाप का जो किराया रखा था, आधी-आधी दूरी की दो टिकट लेकर उस स्टाप तक कम पैसे में पहुंचा जा सकता था. ऐसा करने के पीछे एसटी महामंडल का तर्क जो भी रहा हो, लेकिन नियमित यात्रियों ने आधी-आधी दूरी के दो पास बनवाकर पैसे बचाना जरूर शुरू कर दिया था. 

पुराने जमाने के शासकों के कई फैसले आज हमें बेतुके लगते हैं. अंग्रेजों तक ने अविभाजित भारत में राज करते समय एक पेड़ को इसलिये जंजीर से बंधवा दिया था कि नशे में धुत एक अंग्रेज अधिकारी को लगा कि वह पेड़ उसकी हत्या कर देगा. आज भी इस जंजीर बंधे पेड़ को पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में देखा जा सकता है. 

भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’ पता नहीं कभी सचमुच में थी भी या नहीं, बेतुकेपन की पराकाष्ठा मानकर आज हम उस पर हंसते जरूर हैं. लेकिन हर दौर के शासन में क्या कुछ न कुछ बेतुके काम होते हैं और हमारा अपना दौर भी इसका अपवाद नहीं है? 

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