बर्बरता का बोलबाला

आदिम तो थे हम लाखों वर्षों से ही, पर
होने अभिमान लगा था यह
जंगली प्राणियों से हटकर
हम मानव दुनिया में विवेक से चलते हैं
पशुबल को हावी होने देते नहीं
तर्क से ही अपने मसले सारे सुलझाते हैं।
पर समय-समय पर होने वाले युद्ध
तोड़ते हैं इस भ्रम को बुरी तरह
साबित कर देते हैं आखिर तो
बर्बरता दुनिया में सबसे बढ़कर है
कितना भी खुद को कहें विवेकी मानव हम
आखिर में तो विजयी पशुबल ही होता है
जो त्याग-तपस्या करते थे ऋषि-मुनि पहले
उनको भी धनुर्धरों की ही
लेनी पड़ती थी मदद सुरक्षा की खातिर
युद्धों से ही हर राजा अपना
राज्य बढ़ाया करता था।
घनघोर तिमिर में भी पर लाखों वर्षों के
जुगनू की तरह चमकते दिखते गांधीजी
तलवार-तीर-भालों का करने मुकाबला
सत्याग्रह का हथियार दिखाई पड़ता है
जिसके बल पर खुद की रक्षा
मानव अविवेकी बने बिना कर सकता है।
बीते तो नहीं बहुत दिन पर
धुंधले होते जाते उनके पदचिह्न
समूची दुनिया में पशुबल का फिर
शासन दिखलाई पड़ता है
उम्मीद नजर आई थी जो मानवता की
क्या हो जाएगी लुप्त
अंत में बर्बरता ही जीतेगी?
रचनाकाल : 4-8 अगस्त 2024

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