दुनिया में लोकतंत्र पर मंडराता संकट और उम्मीद बंधाते गांधीजी

 बांग्लादेश में छात्रों ने जिस तरह से सरकार का तख्ता पलट दिया है, उससे लोकतंत्र के शुभचिंतकों को खुश होना चाहिए या चिंतित? सवाल यह नहीं है कि उनकी मांगें क्या थीं और सरकार का रवैया क्या था. सवाल विरोध प्रदर्शन के तरीके को लेकर है. वैसे कहा यह भी जा रहा है कि आरक्षण तो सिर्फ एक बहाना था, आंदोलनकारी असल में हसीना सरकार को हटाना चाहते थे. लेकिन हसीना सरकार अगर इतनी ही जनविरोधी थी तो अभी सात माह पहले ही जनता ने उन्हें भारी बहुमत से चुना क्यों था? भले ही ढाका में सड़कों पर उतरे आंदोलनकारियों की संख्या चार-पांच लाख रही हो लेकिन चार-पांच करोड़ से भी अधिक मतों से चुनी गई सरकार को इतने अराजक तरीके से सत्ता से हटाना ही क्या लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर है? हालांकि कहने वाले यह भी कहते हैं कि निहित स्वार्थों वाली विदेशी ताकतों ने छात्रों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई है, लेकिन देश के भावी कर्णधारों को इतना कच्चा तो नहीं होना चाहिए कि किसी का मोहरा बन जाएं!

सवाल सिर्फ बांग्लादेश का नहीं है. कुछ साल पहले श्रीलंका में भी हमने ऐसा ही दृश्य देखा था और अफगानिस्तान में भी. अराजक भीड़ का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आवास को रौंद डालना, अपने महापुरुषों के प्रतीकों को ध्वस्त करना लोकतंत्र में आस्था रखने वालों का काम तो नहीं हो सकता! अगर हमने गलत सरकार चुनी है तो उसे हटाने का तरीका भी लोकतांत्रिक ही होना चाहिए, वरना हम में और नक्सलियों में फर्क क्या रह जाएगा, वे भी तो जनता के हितों के नाम पर ही सरकारों का हिंसक प्रतिरोध करते हैं! ऐसी घटनाएं भले ही किसी देश विशेष में हुई हों, सबक सभी लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों को लेना चाहिए कि उनके देश में कभी ऐसी परिस्थिति पैदा हुई तो उनका रवैया क्या होगा? 

ऐसी परिस्थिति में गांधीजी का मार्ग ही जवाब के रूप में सामने आता है. महात्मा गांधी की दुनिया सिर्फ इसलिए इज्जत नहीं करती कि उन्होंने भारत को आजाद कराया था; वह इसलिए आदर करती है कि उन्होंने दुनिया को प्रतिरोध का नया तरीका दिया था. मतभेद तो दुनिया में सदा से ही रहे हैं और रहेंगे, महत्वपूर्ण यह है कि विरोध का हमारा तरीका कैसा हो. पशुबल से किसी को शारीरिक रूप से भले जीता जा सके लेकिन उसके मन को जीतने का उपाय तो रचनात्मक प्रतिरोध ही है. गांधीजी ने पूरी की पूरी पीढ़ी को रचनात्मक कार्यों में प्रवृत्त करने की कोशिश की थी. असहयोग आंदोलन के दौरान चौरीचौरा में आंदोलनकारियों द्वारा 22 पुलिसकर्मियों को जिंदा जलाए जाने की घटना के बाद जब उन्होंने अचानक आंदोलन रोका तो उनकी बहुत आलोचना हुई थी, लेकिन गांधीजी जानते थे कि बर्बरता को अगर उंगली पकड़ने की छूट दी जाए तो बहुत जल्दी वह हाथ ही नहीं, पूरे शरीर को जकड़ लेती है. 

इतिहास गवाह है कि मनुष्य जाति ने जो भी लड़ाइयां बर्बर तरीके से लड़ीं, उन्होंने मनुष्यता को कुछ नीचे ही गिराया है. लेकिन हमारे पास गांधीजी का सत्याग्रह जैसा हथियार है, जो विरोधी का दिल जीत कर उस पर विजय हासिल करता है. लोकतंत्र बर्बरों के लिए नहीं होता और अगर हमने इसे चुना है तो इसके लिए अपनी योग्यता भी हमें ही सिद्ध करनी होगी.  

(7 अगस्त को प्रकाशित)

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