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Showing posts from September, 2025

कर्मों की ध्वनि मन सुनता है

जब बात नहीं सुनते थे मेरी लोग बहुत मैं परेशान तब होता था झल्लाता, गुस्सा आता मन उद्विग्न हमेशा रहता था। सहसा ही लेकिन लगा एक दिन यह तो केवल मेरी नहीं समस्या है दुनिया में सारे झगड़ों की जड़ ही यह है सबको लगता है सब जन उनकी बात सुनें! तब से मैं जो कहने की इच्छा रखता हूं आचरण स्वयं करने की कोशिश करता हूं पहले मुझको लगता था जितना तेज अधिक चिल्लाऊंगा उतना ही ज्यादा लोग उसे सुन पाएंगे पर समझ गया अब यह रहस्य हम इंसानों की वाणी ज्यादा दूर नहीं जा पाती है तय फ्रीक्वेंसी में ही बस हम सुन पाते हैं पर हाथी जैसे इंफ्रासोनिक ध्वनियों को सुन लेता है जो बहुत दूर तक जाती है वैसे ही कर्मों की ध्वनि की पिच धीमी इतनी होती है जो कान भले ही सुन न सकें पर मन सबका सुन लेता है!   रचनाकाल : 28 सितंबर 2025

बंदरों के हाथ लगे उस्तरे की धार को तेज करने के नुकसान

 ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों के लिए फरमान जारी कर दिया है कि उन्हें 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के सोशल मीडिया अकाउंट 10 दिसंबर तक बंद करने होंगे. ऑस्ट्रेलियाई संसद द्वारा इस संबंध में दिसंबर 2024 में पारित कानून 10 दिसंबर से ही प्रभावी होगा और तय अवधि के बाद इस कानून का पालन न करने वाली कंपनियों पर 33 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. उधर सोशल मीडिया साइटों पर पाबंदी लगाए जाने से भड़के जेन-जी (13 से 28 वर्ष आयुवर्ग के युवा) ने नेपाल में सरकार का तख्ता ही पलट दिया. समझ में नहीं आता आखिर सोशल मीडिया अच्छा है या बुरा! अगर अच्छा है तो ऑस्ट्रेलिया ने इस पर प्रतिबंध क्यों लगाया? और अगर बुरा है तो नेपाल में युवाओं ने इस पर प्रतिबंध लगाए जाने से भड़ककर सरकार क्यों गिराई?  राजशाही के भ्रष्टाचार से त्रस्त नेपाली लोग अभी सत्रह साल पहले ही वहां लोकतंत्र लाए थे, फिर लगभग डेढ़ दशकों में ही ऐसा क्या हो गया कि भड़के युवाओं ने न सत्ता पक्ष के नेताओं को बख्शा, न विपक्ष को और वर्तमान ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्रियों का घर भी फूंक दिया! ऐसे में सवाल उठता है कि ल...

विष भी अमृत बन सकता है

जब छोटे-छोटे पौधे रोपे जाते हैं तो नयी जगह पर खूब लहलहाते हैं वे फिर पेड़ उखाड़े जाते हैं तो नये सिरे से जड़ वे अपनी नहीं जमा क्यों पाते हैं? कहते हैं ऐसा वैज्ञानिक पौधों के भीतर नयी कोशिका बनती हैं वय ढलती है पर तो वे मरने लगती हैं तो सचमुच मरने के पहले क्या धीरे-धीरे मरने हम लग जाते हैं? हो भले नियम जड़ जीवों की खातिर यह, पर अपवाद अगर चाहें तो हम बन सकते हैं जिस विष से सारे जीव-जंतु मर जाते हैं पीकर उसको शिव नीलकण्ठ कहलाते हैं अनुकरण नहीं फिर उनका हम क्यों करते हैं? रचनाकाल : 21 सितंबर 2025

‘हाईजैक’ होते आंदोलन और बुराई से लड़ते-लड़ते बुरे बनते लोग

 विभिन्न कारणों से दुनिया में समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं और नेपाल की ताजा जेन-जी क्रांति भी इसी की एक कड़ी है. सरकारों की तो आदत ही होती है बल प्रयोग कर शांति स्थापित करने की और इसी प्रक्रिया में नेपाल में कई छात्र मारे गए, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने भी जितने व्यापक पैमाने पर हिंसा और तोड़फोड़ की, उससे अब बहुत से नेपाली सदमे में हैं. कई प्रदर्शनकारियों ने आशंका जाहिर की कि आंदोलन को अराजक तत्वों ने ‘हाईजैक’ कर लिया और सेना को भी यही लग रहा है. प्रदर्शनकारियों ने एक बयान जारी कर कहा, ‘हमारा आंदोलन अहिंसक था, और है, और यह शांतिपूर्ण नागरिक भागीदारी के उसूलों पर आधारित है.’  तो टीवी चैनलों पर जो हमने संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट की इमारत और अन्य संवैधानिक भवनों को धू-धू कर जलते देखा, क्या वह छात्रों के मुखौटे में अराजक तत्वों की करतूत थी?  अभी कुछ माह पहले ही बांग्लादेश से भी ठीक इसी तरह के दृश्य सामने आए थे. वहां भी छात्रों की आड़ में ही सारी हिंसा और तोड़फोड़ की गई. अगर ये सब अराजक तत्वों की करतूतें थीं तो क्या वे इतनी बड़ी संख्या में भी हो सकते हैं कि सरकार तक गिराने की ...

अच्छे दिनों का बीजारोपण

मैं अच्छे दिन के इंतजार में पहले अक्सर खाली बैठा रहता था अनुकूल समय में काम बहुत कर लेता था प्रतिकूल समय में लेकिन सहमा रहता था। पर जब से जाना यह रहस्य पेड़ों पर फल ऋतु आने पर ही लगते हैं पर उसकी खातिर पेड़ लगाने पड़ते हैं तब से प्रतिकूल समय में भी मैं नहीं बैठता हूं खाली मन में रखता हूं यह अदम्य विश्वास बुरे दिन भले तुरंत न कट पायें पर आगे चल कर अच्छे दिन इसके बल पर ही आयेंगे जो आज बीज बोयेंगे हम फल उसका ही कल पायेंगे। रचनाकाल : 13 सितंबर 2025

संतुलन की कला

मैं जब भी हद से ज्यादा मेहनत करता हूं सीने में बढ़ता दर्द डराने लगता है पर थोड़ा भी जब ज्यादा सुस्ता लेता हूं तो समय नष्ट हो जाना विचलित करता है। जब नहीं संतुलन का महत्व था पता उठाकर बोझ अधिक पड़ जाता था बीमार मगर करते-करते आराम नींद लग जाती जब तो कई दिनों तक यूं ही सोया रहता था फिर सहसा खुलती नींद कभी तो व्यर्थ दिनों की भरपाई के चक्कर में मैं फिर से ज्यादा बोझ उठाया करता था इस तरह हमेशा अतियों में ही जीता था। अब समझ गया हूं तार अगर ढीला हो तो धुन नहीं सुरीली मन वीणा की लगती है ज्यादा लेकिन कसने पर भी कर्कश आवाज निकलती है इसलिये हमेशा सम पर ही रहने की कोशिश करता हूं आवाज बेसुरी शोर-शराबा लगती जो सुर सधते ही वह गीत सुरीला बनती है। रचनाकाल : 9 सितंबर 2025

नैतिकता को बेवकूफी समझने की मूर्खता से पिछड़ता देश

 ब्रिटेन में उपप्रधानमंत्री एंजेला रेनर ने हाल ही में नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया. रेनर ने एक घर खरीदा था और अनजाने में ही उस पर कम टैक्स चुकाया. दरअसल ब्रिटेन में पहली प्रॉपर्टी खरीदने पर कम टैक्स देना पड़ता है और दूसरी बार खरीदने पर ज्यादा. रेनर को लगा कि यह उनकी पहली प्रॉपर्टी है. लेकिन पता चला कि अपने विकलांग बेटे के लिए बनाए गए एक खास ट्रस्ट की वजह से यह फ्लैट उनकी दूसरी प्रॉपर्टी मानी गई है और इस हिसाब से उन्होंने 44 लाख रु. कम टैक्स भरा है. रेनर ने खुद ही स्वतंत्र सलाहकार लॉरी मैग्नस से जांच करवाई और अपनी गलती पाए जाने पर प्रधानमंत्री स्टार्मर को इस्तीफा सौंप दिया! रेनर अपनी पार्टी की प्रतिभाशाली नेता थीं और माना जा रहा था कि वे स्टार्मर की उत्तराधिकारी होंगी. तो, उन्होंने भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का मौका गंवा दिया है. रेनर ने आखिर ऐसा क्यों किया? गलती की भरपाई वे जुर्माना भरकर भी तो कर सकती थीं! आखिर किसी उपप्रधानमंत्री के लिए 44 लाख की रकम इतनी बड़ी तो नहीं हो सकती कि इसका खामियाजा उसे राजनीतिक निर्वासन के रूप में भुगतना पड़े! वह भी तब जब हमारे देश की तरह वहां व...

जीने का ढंग

जब दर्द बढ़ गया सीने में तब सहसा ही यह लगा नहीं है मेरे पास समय ज्यादा इसलिये नहीं अब व्यर्थ एक पल को भी जाने देता हूं। जब जीता था निश्चिंत बीत जाते यूं ही दिन-रात नहीं हो पाता था कुछ काम हमेशा लगता था यह अभी मुझे तो बहुत दिनों तक जीना है! अब लगता है यह कहा किसी ने सही कि जीवन जियो इस तरह से जैसे कोई भी दिन अंतिम साबित हो सकता है तब ही सचमुच में हर दिन को जी पाओगे वरना आखिर में पछताते रह जाओगे! रचनाकाल : 3 सितंबर 2025

इतनी खुशामद और चाटुकारिता कहां से सीख रहा है एआई ?

 वास्तविक दुनिया में ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं जिनके पास आपकी बातें सुनने, सहानुभूति जताने और समाधान सुझाने के लिए समय हो. शायद इसीलिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का हमारी जिंदगी में स्थान बढ़ता जा रहा है, क्योंकि यह न केवल सहानुभूतिपूर्वक हमारी बातें सुनता है बल्कि हमारी बातों के समर्थन में वह हमारे सामने इतने मजबूत तर्क पेश करता है कि पुराने राजाओं के दरबारियों की जी-हुजूरी भी शरमा जाए! इस खुशामद के खतरों के प्रति गोस्वामी तुलसीदासजी ने सैकड़ों साल पहले ही यह कहकर आगाह किया था कि ‘सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास.’ लेकिन एआई को तो हमसे न कोई भय हो सकता है और न ही आस; फिर वह क्यों ऐसा कर रहा है?   वैसे तो एआई का इतिहास कई दशक पुराना है लेकिन पिछले कुछ महीनों में चैटजीपीटी, डीपसीक, ग्रोक, गूगल जेमिनी, मेटा एआई जैसे चैटबॉट आने के बाद कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति आई है. माना जा रहा था कि एआई सबकुछ जानता है और मानवीय सीमाओं के आगे जाकर भी हमें राह दिखा सकता है. लेकिन हाल के दिनों में कई लोगों को लगने लगा...