नैतिकता को बेवकूफी समझने की मूर्खता से पिछड़ता देश
ब्रिटेन में उपप्रधानमंत्री एंजेला रेनर ने हाल ही में नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया. रेनर ने एक घर खरीदा था और अनजाने में ही उस पर कम टैक्स चुकाया. दरअसल ब्रिटेन में पहली प्रॉपर्टी खरीदने पर कम टैक्स देना पड़ता है और दूसरी बार खरीदने पर ज्यादा. रेनर को लगा कि यह उनकी पहली प्रॉपर्टी है. लेकिन पता चला कि अपने विकलांग बेटे के लिए बनाए गए एक खास ट्रस्ट की वजह से यह फ्लैट उनकी दूसरी प्रॉपर्टी मानी गई है और इस हिसाब से उन्होंने 44 लाख रु. कम टैक्स भरा है. रेनर ने खुद ही स्वतंत्र सलाहकार लॉरी मैग्नस से जांच करवाई और अपनी गलती पाए जाने पर प्रधानमंत्री स्टार्मर को इस्तीफा सौंप दिया!
रेनर अपनी पार्टी की प्रतिभाशाली नेता थीं और माना जा रहा था कि वे स्टार्मर की उत्तराधिकारी होंगी. तो, उन्होंने भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का मौका गंवा दिया है. रेनर ने आखिर ऐसा क्यों किया? गलती की भरपाई वे जुर्माना भरकर भी तो कर सकती थीं! आखिर किसी उपप्रधानमंत्री के लिए 44 लाख की रकम इतनी बड़ी तो नहीं हो सकती कि इसका खामियाजा उसे राजनीतिक निर्वासन के रूप में भुगतना पड़े! वह भी तब जब हमारे देश की तरह वहां विपक्षी पार्टियां इसे लेकर हो-हल्ला भी नहीं मचा रही थीं!(हमारे देश में तो नेता इससे कई गुना ज्यादा राशि अपने आवास के रंग-रोगन पर खर्च कर देते हैं.)
लेकिन नैतिकता शायद इसी को कहते हैं. हमारे देश में भी इस तरह के उदाहरणों की कमी नहीं रही है. कहते हैं 1950 के दशक में जब एक ट्रेन पटरी से उतर गई तो तत्कालीन रेल मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. 1962 के युद्ध में चीन से मिली शिकस्त के बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन ने अपना त्यागपत्र सौंप दिया था. लेकिन ये गुजरे जमाने की बातें हैं. आज तो नेता भ्रष्टाचार के मामलों में बेनकाब होने पर भी जनता की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आते और मजे की बात यह है कि हम उन्हें ऐसा करने भी देते हैं!
दरअसल हम आम लोग अब खुद ही इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि अपने नेताओं का भ्रष्टाचार हमें परेशान नहीं करता. अपवाद हर जगह होते हैं और हो सकता है हममें भी कुछ लोग हों, लेकिन चुनावों की पूर्व संध्या पर (जिसे कत्ल की रात भी कहा जाता है) शराब की बोतलें और पैसे बांटे जाने का खुला खेल क्या साबित करता है? सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार 2024 के आम चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों ने कुल मिलाकर एक लाख करोड़ रु. से अधिक खर्च किया. आखिर हममें ऐसे कितने लोग हैं जो बिकने से इंकार करने की क्षमता रखते हैं? क्या हम कभी यह सोचने की जहमत उठाते हैं कि जिन पैसों से नेता हमें खरीदते हैं, वह उनके पास आता कहां से है? अवैध कमाई में हिस्सा बंटाकर क्या हम भी उनके पापकर्मों में हिस्सेदार नहीं बन जाते हैं?
ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं है कि हममें से बहुत से लोग एंजेला रेनर जैसों को बेवकूफ समझते हों! लेकिन ऐसे ‘बेवकूफों’ के बल पर ही कोई देश आगे बढ़ता है. गांधीजी के सत्याग्रह की विरासत का वारिस होने के बावजूद आज हमें हड़ताल की बजाय काम अधिक करके विरोध प्रदर्शन का तरीका मूर्खता की पराकाष्ठा लग सकता है, लेकिन जापानियों ने दो-दो परमाणु बमों की तबाही झेलने के बावजूद इसी तरीके के बल पर आज अपने देश को दुनिया की अग्रणी पंक्ति में पहुंचाया है. चीन को आज हम कितना भी कोसें लेकिन आम लोगों की हाड़तोड़ मेहनत के बल पर ही वह देश आज इतना आगे बढ़ा है. भले ही साम्यवादी शासन हो, लेकिन वहां के नेता कम से कम जनता के पैसों की लूट-खसोट में तो नहीं लगे रहते! नीदरलैंड, डेनमार्क जैसे देशों में सिर्फ लोग ही साइकिल को बढ़ावा नहीं देते बल्कि वहां के राष्ट्राध्यक्ष तक साइकिल से दफ्तर आते-जाते हैं. वीवीआईपी के आवागमन के लिए सड़कों पर यातायात अस्त-व्यस्त कर दिए जाने वाले अपने देश में क्या हम इसकी कल्पना भी कर सकते हैं?
इसलिए जब हम अपने देश के पिछड़ेपन (विश्व खुशहाली रिपोर्ट 2025 के अनुसार भारत 147 देशों की सूची में 118वें स्थान पर है) को लेकर नासमझ बनकर चिंता जताते हैं तो वास्तव में अपने को ही धोखा देते हैं. जब तक हम खुद को पाक-साफ मानकर समस्या को दूसरी जगह ढूंढ़ने का प्रयास करेंगे तब तक नाकामी ही हाथ लगती रहेगी.
(10 सितंबर 2025 को प्रकाशित)
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