बंदरों के हाथ लगे उस्तरे की धार को तेज करने के नुकसान

 ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों के लिए फरमान जारी कर दिया है कि उन्हें 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के सोशल मीडिया अकाउंट 10 दिसंबर तक बंद करने होंगे. ऑस्ट्रेलियाई संसद द्वारा इस संबंध में दिसंबर 2024 में पारित कानून 10 दिसंबर से ही प्रभावी होगा और तय अवधि के बाद इस कानून का पालन न करने वाली कंपनियों पर 33 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. उधर सोशल मीडिया साइटों पर पाबंदी लगाए जाने से भड़के जेन-जी (13 से 28 वर्ष आयुवर्ग के युवा) ने नेपाल में सरकार का तख्ता ही पलट दिया. समझ में नहीं आता आखिर सोशल मीडिया अच्छा है या बुरा! अगर अच्छा है तो ऑस्ट्रेलिया ने इस पर प्रतिबंध क्यों लगाया? और अगर बुरा है तो नेपाल में युवाओं ने इस पर प्रतिबंध लगाए जाने से भड़ककर सरकार क्यों गिराई? 

राजशाही के भ्रष्टाचार से त्रस्त नेपाली लोग अभी सत्रह साल पहले ही वहां लोकतंत्र लाए थे, फिर लगभग डेढ़ दशकों में ही ऐसा क्या हो गया कि भड़के युवाओं ने न सत्ता पक्ष के नेताओं को बख्शा, न विपक्ष को और वर्तमान ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्रियों का घर भी फूंक दिया! ऐसे में सवाल उठता है कि लोकशाही अच्छी है या राजशाही?

आखिर किसने सोचा था कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जिस भूमंडलीकरण का गुणगान पूरी दुनिया में किया जा रहा था, इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में ही उससे मोहभंग होने लगेगा! विदेशी वस्तुओं को अपने देश में आने से रोकने के लिए भारी-भरकम टैरिफ लगाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का इससे पेट नहीं भरा तो अब उन्होंने विदेशी पेशेवरों को भगाने के लिए एच1बी वीसा फीस सौ गुना बढ़ा दी है. हालांकि विदेशियों के प्रति यह द्वेष भाव कोई नई बात नहीं है, करीब सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार ने भी भारतीयों को वहां से भगाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए थे, जिसके खिलाफ गांधीजी ने लम्बी लड़ाई लड़ी थी (विडम्बना यह है कि मेहनत से डरने वाले उन गोरों ने ही अपने खेतों में काम करने के लिए भारतीयों को बुलाया था और एच1बी वीसा धारक भी अमेरिका की समृद्धि में बड़ा योगदान दे रहे हैं). तो, सवाल यह है कि भूमंडलीकरण(ग्लोबलाइजेशन) अच्छी चीज है या स्थानीयकरण (लोकलाइजेशन)?

दुनिया में कोई भी चीज ऐसी नहीं है जिसका सदुपयोग के साथ ही दुरुपयोग भी न हो सकता हो. यह इस पर निर्भर है कि उपयोगकर्ता कैसा है. वह अच्छा हो तो तंत्र भी अच्छा सिद्ध होता है और वह बुरा हो तो तंत्र को भी ले डूबता है. त्रासदी यह है कि हम खुद को अच्छा बनाने के बजाय अच्छे साधनों की खोज में ही लगे रहते हैं. लेकिन साधन को ही जब हम साध्य मान लेते हैं तो वह बोझ बन जाता है. जब एक कंधा दुखने लगता है तो हम बोझ को दूसरे कंधे पर रख लेते हैं, जिससे कुछ देर के लिए राहत मिलती है और हमें लगने लगता है कि यही कंधा अच्छा है. लेकिन कुछ देर बाद फिर वही नौबत आ जाती है!

शायद हम समझ नहीं पाते (या समझना नहीं चाहते!) कि समस्या कंधे में नहीं, हमारे शरीर में है. जब तक हम शरीर को मजबूत नहीं बनाएंगे, तब तक कंधे बदल-बदल कर सिर्फ तात्कालिक राहत ही पाएंगे. सोशल मीडिया का प्रसार इसीलिए हुआ था कि आम लोगों को भी अपनी बात खुलकर कहने के लिए एक मंच मिल सके, हर आदमी अपनी बात पूरी दुनिया तक पहुंचा सके. लेकिन हम ये भूल गए कि इससे अगर अच्छे लोग अपनी बात हर जगह पहुंचा सकते हैं तो बुरे लोग भी तो पहुंचा सकते हैं! लोकतंत्र लाने के पीछे हमारा सपना था कि शासन तंत्र में हर आदमी का प्रतिनिधित्व होगा, लेकिन हमने ये नहीं सोचा कि समाज हित से आंखें मूंदकर अगर हम निजी स्वार्थ के लिए बिकने को तैयार हो जाएंगे तो जनप्रतिनिधि हमारे वोट खरीद कर राजशाही से भी बुरे शासक सिद्ध होंगे! भूमंडलीकरण से हम खुश थे कि इससे अच्छी चीजों का पूरी दुनिया में प्रसार होगा, लेकिन हम यह क्यों भूल गए कि इससे बुरी चीजों का भी वैश्वीकरण हो सकता है? 

उस्तरा अगर नाई के हाथ में हो तो बहुत काम की चीज होता है, लेकिन बंदर के हाथ लग जाए तो उतना ही नुकसान भी पहुंचा सकता है. इसलिए उस्तरे की धार तेज करने के पहले क्या हमें उसके उपयोगकर्ता को विवेकशील बनाने पर ध्यान नहीं देना चाहिए ताकि उसका दुरुपयोग नहीं, सदुपयोग हो! 

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