‘हाईजैक’ होते आंदोलन और बुराई से लड़ते-लड़ते बुरे बनते लोग

 विभिन्न कारणों से दुनिया में समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं और नेपाल की ताजा जेन-जी क्रांति भी इसी की एक कड़ी है. सरकारों की तो आदत ही होती है बल प्रयोग कर शांति स्थापित करने की और इसी प्रक्रिया में नेपाल में कई छात्र मारे गए, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने भी जितने व्यापक पैमाने पर हिंसा और तोड़फोड़ की, उससे अब बहुत से नेपाली सदमे में हैं. कई प्रदर्शनकारियों ने आशंका जाहिर की कि आंदोलन को अराजक तत्वों ने ‘हाईजैक’ कर लिया और सेना को भी यही लग रहा है. प्रदर्शनकारियों ने एक बयान जारी कर कहा, ‘हमारा आंदोलन अहिंसक था, और है, और यह शांतिपूर्ण नागरिक भागीदारी के उसूलों पर आधारित है.’ 

तो टीवी चैनलों पर जो हमने संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट की इमारत और अन्य संवैधानिक भवनों को धू-धू कर जलते देखा, क्या वह छात्रों के मुखौटे में अराजक तत्वों की करतूत थी? 

अभी कुछ माह पहले ही बांग्लादेश से भी ठीक इसी तरह के दृश्य सामने आए थे. वहां भी छात्रों की आड़ में ही सारी हिंसा और तोड़फोड़ की गई. अगर ये सब अराजक तत्वों की करतूतें थीं तो क्या वे इतनी बड़ी संख्या में भी हो सकते हैं कि सरकार तक गिराने की क्षमता रखते हों?

अगर ध्यान से देखें तो दुनिया की बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं में हम इन तत्वों को हावी होने का प्रयास करते देख सकते हैं. अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनआंदोलन किया तो उनके बहुत से सहयोगियों की शिकायत थी कि इसे निहित स्वार्थी तत्वों ने हाईजैक कर लिया है. गांधीजी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो चौरीचौरा में 22 पुलिसवालों को जलाए जाते ही उनके कान खड़े हो गए और भीषण विरोध सहते हुए भी उन्होंने तत्काल आंदोलन वापस ले लिया. दुर्भाग्य से बहुत कम नेता गांधीजी की तरह दूरदर्शी होते हैं. वे जनआंदोलनों की आग लगाने की कला तो जानते हैं, लेकिन उसे नियंत्रित करने की नहीं, और जब वह दावानल बन जाती है तो उसे सबकुछ लीलते हुए असहाय देखते रह जाते हैं. 

परंतु समाज में इतने अराजक तत्व आते कहां से हैं कि वे सबकुछ तहस-नहस कर डालें? मुखौटों की आड़ लेना ही साबित करता है कि वे भीतर से बहुत कमजोर होते हैं. फिर शांतिकाल में हम उन पर इतना अंकुश क्यों नहीं रख पाते कि नाजुक मौकों पर वे सिर उठाने की जुर्रत न कर सकें? 

शायद उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, हम सफेदपोश मनुष्यों का ही वे दूसरा पहलू होते हैं. यह कहावत कदाचित गलत नहीं है कि हर आदमी के भीतर ईश्वर का भी अंश होता है और शैतान का भी; और जो जिसे जितना खाद-पानी देता है, वह उसके अंदर उतना ही ताकतवर होकर उभरता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलन की उत्तेजना में छात्रों के भीतर ही मौजूद शैतान के अंश ने अराजक होकर उत्पात मचाया और अब तूफान गुजरने के बाद उनके भीतर मौजूद ईश्वर का अंश इस पर अफसोस कर रहा हो!

किसी भी बुराई के खिलाफ आंदोलन या प्रदर्शन करने वालों को शायद एक बार अपने भीतर झांक कर ईमानदारी से यह आत्म-विश्लेषण कर लेना चाहिए कि जिनके खिलाफ वे लड़ रहे हैं, उन बुरे आदमियों की तरह मौका मिलने पर क्या वे भी उनके जैसे ही नहीं बन जाएंगे? कहते हैं पराधीन भारत में जो नेता देश के लिए अपना सर्वस्व होम करने को तैयार रहते थे, आजादी के बाद मौका मिलते ही उनमें से कुछ के भीतर स्वार्थ भावना कुछ इस तरह हावी होने लगी कि जल्दी ही उनसे जनता का मोहभंग होने लगा था. नेपाल में भी अभी 17 साल पहले ही जब राजशाही की जगह लोकतंत्र आया तो किसने सोचा था कि भ्रष्टाचार से लड़ते दिखने वाले लोग नकाब उतरने पर खुद भ्रष्टाचारी नजर आएंगे?

 इसलिए दोष शायद तंत्र में नहीं, हम मनुष्यों में ही है. जब तक हम आत्मनिरीक्षण की कला नहीं सीखेंगे, तब तक चाहे कितनी भी क्रांतियां कर लें, सारे आंदोलन अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह उसी बुराई की भेंट चढ़ जाएंगे, जिसके खिलाफ वे लड़ना चाहते थे!  

(17 सितंबर 2025 को प्रकाशित)

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