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Showing posts from January, 2025

दुर्गुणों का भूमंडलीकरण

जब भी मैं देता सरप्राइज घर पहुंच अचानक लोगों के वे चकित नहीं होते थे, पर नाराज बहुत हो जाते थे। दो-चार दिनों तक बात न हो मैं हाल-चाल की चिंता में झट फोन लगा तब लेता था पर समझ ही नहीं पाता था खुश होने के बदले में वे क्यों अक्सर झल्ला जाते थे! यह बात उन दिनों की है जब मैं शहर, गांव से नया-नया ही आया था कह पाने में ‘थैंक्यू’ भी तब सकुचाता था होकर विनम्र आंखों से ही आभार प्रकट करने की कोशिश करता था। उस समय मुझे महसूस हुआ पॉलिश करके सुंदर दिखना भी एक कला ही होती है गांवों में होते लोग खरा सोना शहरों में मगर सुघड़ता होती है कितना सुंदर हो दोनों यदि मिल जायें तो भीतर-बाहर से दमक उठे जीवन सारा! सपना तो पूरा हुआ गांव-शहरों का फर्क मिटा, लेकिन गुण एक-दूसरे का अपनाने की बजाय दुर्गुण दोनों ने ही इक-दूजे का आखिर क्यों सीख लिया! जो बन सकता था स्वर्ग, नरक में क्योंकर वह तब्दील हुआ? रचनाकाल : 19 जनवरी 2025

भूखे पेट की चिंता और भरे पेट के चिंतन का भयावह फर्क

 बहुत माह नहीं बीते जब एक बड़े उद्योगपति ने राष्ट्र निर्माण के लिए युवाओं से हफ्ते में 70 घंटे काम करने को कहा था और दूसरे उद्योगपति ने उसका समर्थन किया था. अब तीसरे उद्योगपति के इस बयान से भी वैसी ही बहस छिड़ गई है कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए.  नब्बे घंटे काम करना कोई नई बात नहीं है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन रोज 18 घंटे काम करते थे. कहते हैं पंडित जवाहरलाल नेहरू रात में सिर्फ चार घंटे सोते थे. हिटलर के ‘कांसेंट्रेशन कैम्प’(यातना गृह) में भी बंदियों से रोज 18 घंटे काम करवाया जाता था. समझने वाली बात यह है कि राहुल सांकृत्यायन के 18 घंटे के काम और हिटलर के बंदियों द्वारा 18 घंटे किए जाने वाले काम में फर्क किस बात का था? क्यों राहुल सांकृत्यायन अपने कामों से आज भी अमर हैं और क्यों हिटलर के बंदी कुछ दिनों या कुछ महीनों की मेहनत के बाद ही दम तोड़ देते थे? इसलिए कि सांकृत्यायनजी अपनी मर्जी से मेहनत करते थे और बंदियों से जबरन करवाया जाता था.  एक बार 14-15 साल की एक लड़की एक छोटे लड़के को पीठ पर लाद कर पहाड़ चढ़ रही थी. उससे पूछा गया कि तुम इतना बोझ कैसे...

डर के आगे जीत

मैं अक्सर सोचा करता था जो पटरी करते पार ट्रेन आने पर कुचले जाते हैं क्या दिख जाने पर ट्रेन समय इतना भी पास नहीं होता कुछ फुट भी दूर चले जायें! पर एक बार जब खेतों में मैं फसल बचाने खातिर अपनी भगा रहा था सांड़ पलट कर दौड़ा मेरे पीछे वह तब भय से जड़ हो गया भाग मैं एक कदम भी नहीं सका रुकते ही मेरे वह भी तो रुक गया मगर यह सीख मुझे दे गया अगर मन में भय हावी हो जाये तो हो जाते हैं हम तुरंत असहाय नहीं संकेत पहुंच पाते दिमाग के हाथ-पैर तक अपने ही इसलिये कहा जाता शायद जो डर जाता, मर जाता है जीवन तो निर्भयता से ही जीने वाला जी पाता है! रचनाकाल : 9 जनवरी 2025

चक्रव्यूह

भागते तेज लोगों को देखा था जब मैं भी शामिल तो इस दौड़ में हो गया किंतु महसूस होता है अब जीतकर रोक पाने की खुद को कला तो अभी सीखना रह गया! बोझ बढ़ने लगा जब पुराने का तब तोड़ तो मैंने डालीं सभी रूढ़ियां जब अराजक बना और निरंकुश हुआ तब ये जाना नियम तो बनाना नया रह गया! मैंने मेहनत बहुत की, सफलता मिली पर न जाने अहंकार कब आ गया सांझ में जिंदगी की पता ये चला जो था आरम्भ सुंदर, उसे खत्म गरिमा से करना तो रह ही गया! मैंने अभिमन्यु की ही तरह घुसने की तो कला सीख ली किंतु उन्नति के अब इस चरम बिंदु पर लग रहा है पहुंच कर कहां आ गया राह दिखती नहीं, मृत्यु के व्यूह में तो नहीं फंस गया! रचनाकाल : 7-8 जनवरी 2025

उपहारों की निरर्थकता को सार्थकता में बदलने की चुनौती

 हाल ही में दुनिया में क्रिसमस और नये साल का जश्न मनाया गया. अब खबर है कि अमेरिका में सेलिब्रेशन के बाद दुकानों में गिफ्ट्‌स लौटाने वालों की भीड़ उमड़ रही है. सब जानते हैं कि उपहार जितने में खरीदे जाते हैं, उससे करीब आधे दामों में ही बिकते हैं. हालांकि उपहार की कीमत नहीं बल्कि उसे देने वाले की भावना देखी जाती है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उपहारों का यही उद्देश्य होता है कि वे पाने वाले के काम आएं. इसके बावजूद किसी को उपहार देते समय क्या हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि वह पाने वाले के कितना काम आएगा?  सच तो यह है कि उपहारों के बारे में उपयोगिता की दृष्टि से सोचा जाने लगे तो प्राय: हर औपचारिक आयोजन में स्वागत के लिए दिए जाने वाले पुष्पगुच्छ या बुके की निरर्थकता खुलकर नजर आने लगेगी. ऐसे कितने लोग होते हैं जो स्वागत में मिलने वाले पुष्पगुच्छ या बुके अपने घर ले जाते हैं या उसका कोई सदुपयोग करते हैं? पुष्पगुच्छ देने वाला भी जानता है और लेने वाला भी कि कुछ मिनट बाद (अथवा आयोजन की समाप्ति पर) उसकी नियति कूड़ेदान में जाना ही है, फिर भी हम परंपरा को बदलने की बात सोचते भी नहीं! गांधी युग...

हार स्वीकारने और दिल जीतने की कला सिखाने की चुनौती

 दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जो खुशी-खुशी हार स्वीकार करना चाहता हो. हर कोई जीतना चाहता है. शायद इसीलिए उन्नीसवीं सदी के विचारक आर. जी. इंगरसोल ने कहा था कि ‘बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बड़ी परीक्षा है.’ लेकिन अब आधुनिक विशेषज्ञों का कहना है कि खेल में बच्चों को जीत की सीख देने से ज्यादा जरूरी है उन्हें हार स्वीकार करने और उससे सबक लेने की कला सिखाना. कनाडा की वाटरलू यूनिवर्सिटी के खेल और मनोरंजन प्रबंधन के प्रो. रयान स्नेलग्रोव का कहना है कि खेल में हारना बच्चों के लिए अपनी गलतियों से सीखने और सुधार करने की रणनीतियों के बारे में सोचने का एकमात्र तरीका है. हार को स्वीकार करने से बच्चों को वयस्क जीवन में आने वाली असफलताओं और चुनौतियों का सामना करने की तैयारी में मदद मिलती है. लेखक डॉ. बिली गर्वे भी कहते हैं कि हार से बच्चों को जीवन में उतार-चढ़ाव के बारे में कुछ नया जानने-सीखने को मिलता है.  रामायण में वर्णन है कि बचपन में रामचंद्रजी अपने छोटे भाइयों को खेलों में जानबूझ कर जिता देते थे. भरतजी कहते हैं- ‘हारेहुँ खेल जितावहिं मोही.’ अर्थात मेरे हार...

मुफ्तखोरी के खिलाफ

जीवन का लक्ष्य बनाया था मैंने भी जनसेवा ही लेकिन मुफ्त बांट कर चीजें जब नेता करते हैं जनसेवा तो मुझे अटपटा लगता है इसलिये छोड़ कर राजनीति मैं अलग राह अपनाता हूं संगीत, गीत या चित्रकला कविता के जरिये लोगों के मन को समृद्ध बनाता हूं कोशिश करता हूं जगा सकूं लोगों के भीतर स्वाभिमान वे ताकि मुफ्त की चीजों के सारे लालच को ठुकरा दें जो उन्हें बनाना चाह रहे हैं मुफ्तखोर उनसे देने के लिये काम की मांग करें नेताओं के छल-छद्‌मों का यह चक्रव्यूह तब टूटेगा वे नहीं किसी को बना सकेंगे बेवकूफ बंदर की तरह न बन करके मध्यस्थ समूची रोटी वे जनता की खुद खा पायेंगे। रचनाकाल : 3-5 जनवरी 2025

क्षतिपूर्ति

नुकसान कभी जब होता था मैं सही-गलत जैसे भी हो भरपाई कर लेने की कोशिश करता था इस चक्कर में पर नैतिकता के स्तर पर गिरता जाता था भौतिक नुकसान बचाने को आत्मिक बल खोता जाता था। इसलिये नहीं क्षतिपूर्ति हेतु अब कभी शाॅर्टकट अपनाता बचने को दु:ख-तकलीफों से विपदा को पीठ न दिखलाता जो भी होते हैं वार सामने से छाती पर सहता हूं लोगों को धोखा देने की तो सोचा ही था नहीं कभी अब खुद को धोखा देने की भी कोशिश कभी न करता हूं जो भी होता नुकसान उसे पूरी पीड़ा से सहता हूं होता यह अचरज सुखद, देख बाहर की सारी क्षतियों की मय ब्याज सदा ही भरपाई भीतर से होती जाती है नैतिक बल बढ़ते जाने से मन अंकुश में अब रहता है आसान बहुत ही, कठिन काम भी लगते हैं। रचनाकाल : 2 जनवरी 2025

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक

 लो, फिर आ गया नया साल! पिछले नये साल की यादें इतनी ताजा हैं कि ऐसा लगता है अभी कुछ दिनों पहले ही तो हमने उसका स्वागत किया था! तो क्या दिन बहुत तेजी से बीत रहे हैं?  किशोरावस्था में नये साल का बेसब्री से इंतजार रहता था. नए-नए संकल्प लिए जाते थे, जिनका अगर पूरे साल पालन होता तो हमें एक आदर्श मनुष्य बनने से कोई नहीं रोक सकता था. दुर्भाग्य से हमें पता ही नहीं चल पाता था कि नये साल का नया दिन बीतते ही स्व-अनुशासन के लिए बनाए गए वे नियम कब टूट जाते थे! और इसका अहसास फिर नया साल आने के समय ही होता था. लेकिन उम्र के उस दौर में हम हार कहां मानते थे! हर नए साल पर उसी उत्साह के साथ नए नियम बनाते, उसी गफलत के साथ वे कुछ दिन बाद टूटते और अगले साल फिर से बनते. तो क्या समय बदल गया है?  समय तो शायद हमेशा एक जैसा रहता है, उम्र के अलग-अलग दौर में हम ही बदलते जाते हैं. बच्चे और युवा तो आज भी उसी उत्साह के साथ नया साल मनाते हैं, बीते कल के हम बच्चे ही शायद आज उद्दाम वेग वाली अल्हड़ पहाड़ी जलधारा के बजाय मैदानों की शांत प्रवाह वाली नदी जैसे बन गए हैं, जो भावनाओं की रौ में आसानी से बह नहीं पा...