हार स्वीकारने और दिल जीतने की कला सिखाने की चुनौती
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जो खुशी-खुशी हार स्वीकार करना चाहता हो. हर कोई जीतना चाहता है. शायद इसीलिए उन्नीसवीं सदी के विचारक आर. जी. इंगरसोल ने कहा था कि ‘बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बड़ी परीक्षा है.’ लेकिन अब आधुनिक विशेषज्ञों का कहना है कि खेल में बच्चों को जीत की सीख देने से ज्यादा जरूरी है उन्हें हार स्वीकार करने और उससे सबक लेने की कला सिखाना. कनाडा की वाटरलू यूनिवर्सिटी के खेल और मनोरंजन प्रबंधन के प्रो. रयान स्नेलग्रोव का कहना है कि खेल में हारना बच्चों के लिए अपनी गलतियों से सीखने और सुधार करने की रणनीतियों के बारे में सोचने का एकमात्र तरीका है. हार को स्वीकार करने से बच्चों को वयस्क जीवन में आने वाली असफलताओं और चुनौतियों का सामना करने की तैयारी में मदद मिलती है. लेखक डॉ. बिली गर्वे भी कहते हैं कि हार से बच्चों को जीवन में उतार-चढ़ाव के बारे में कुछ नया जानने-सीखने को मिलता है.
रामायण में वर्णन है कि बचपन में रामचंद्रजी अपने छोटे भाइयों को खेलों में जानबूझ कर जिता देते थे. भरतजी कहते हैं- ‘हारेहुँ खेल जितावहिं मोही.’ अर्थात मेरे हारने पर भी खेल में वे मुझे जिता देते हैं. इसमें शक नहीं कि किसी को जिताने अर्थात खुद जानबूझ कर हारने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए.
हार और जीत सिक्के के दो पहलू की तरह ही होते हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है. क्या हम बिना जड़ों वाले किसी विशालकाय वृक्ष की कल्पना कर सकते हैं? असफलताएं हमारी जड़ों की तरह ही हैं और जड़ें जितनी गहरी होती हैं, वृक्ष उतना ही ऊंचा होता है. यह विडम्बना ही है कि अपने बच्चों के जीतने या टॉपर बनने की खुशी तो हम उनके साथ बांटते हैं लेकिन हारने या फेल होने की पीड़ा उन्हें अकेले ही झेलनी पड़ती है.
हारने से विनम्रता बढ़ती है और जीतने से अहंकार. दुनिया के अधिकांश झगड़ों की जड़ में अहंकार ही होता है. अपने झूठे अहंकार का भी टूटना हमें बर्दाश्त नहीं होता. दरअसल बच्चों को सिखाना हमें यह चाहिए कि जीतने के लिए कड़ी मेहनत कैसे की जाए और उसके बावजूद यदि हार मिले तो उसका जश्न कैसे मनाया जाए. जीवन कोई सपाट मैदान नहीं होता, इसलिए बच्चों को सिखाना हमें यह चाहिए कि सुंदरता सिर्फ शिखरों में ही नहीं होती, घाटी का अपना सौंदर्य होता है; बस अपना नजरिया हम दीपक की लौ की तरह हमेशा ऊपर उठने की ओर रखें. सिखाना ही है तो बच्चों को अपने प्रतिस्पर्धी से जीतने की बजाय उसका दिल जीतने की कला सिखाएं. तब शायद दुनिया में किसी की हार नहीं होगी, सबकी जीत होगी!
बच्चे दरअसल सफलता अपने लिए नहीं चाहते; वे इसलिए चाहते हैं कि इससे उनके परिजन खुश होंगे और हारने पर उन्हें दु:ख पहुंचेगा. त्रासदी यह है कि बच्चों को भी हम अपने अहंकार की तृप्ति का साधन बना लेते हैं, चाहते हैं कि उसकी सफलता का समाज में डंका पीट सकें.
दुनिया में और किसी प्रजाति के सयाने अपने बच्चों का इस तरह ‘इस्तेमाल’ नहीं करते. हकीकत तो यह है कि फूल जैसे स्वाभाविक रूप से खिलता है, वैसे ही बच्चों को हम सहजता से बढ़ने दें तो वे खुद ही पर्याप्त रूप से मजबूत बन जाएंगे. लेकिन हम बड़े लोग क्या बच्चों के बचपन पर अपना कसा हुआ शिकंजा ढीला करने को तैयार हैं?
(11 दिसंबर 2025 को प्रकाशित)
छोटे बच्चों से लेकर वयोवृद्ध लोगों तक के लिए प्रेरणीय-पठनीय लेख
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