क्षतिपूर्ति
नुकसान कभी जब होता था
मैं सही-गलत जैसे भी हो
भरपाई कर लेने की कोशिश करता था
इस चक्कर में पर नैतिकता
के स्तर पर गिरता जाता था
भौतिक नुकसान बचाने को
आत्मिक बल खोता जाता था।
इसलिये नहीं क्षतिपूर्ति हेतु
अब कभी शाॅर्टकट अपनाता
बचने को दु:ख-तकलीफों से
विपदा को पीठ न दिखलाता
जो भी होते हैं वार
सामने से छाती पर सहता हूं
लोगों को धोखा देने की
तो सोचा ही था नहीं कभी
अब खुद को धोखा देने की भी
कोशिश कभी न करता हूं
जो भी होता नुकसान
उसे पूरी पीड़ा से सहता हूं
होता यह अचरज सुखद, देख
बाहर की सारी क्षतियों की
मय ब्याज सदा ही भरपाई
भीतर से होती जाती है
नैतिक बल बढ़ते जाने से
मन अंकुश में अब रहता है
आसान बहुत ही, कठिन काम भी लगते हैं।
रचनाकाल : 2 जनवरी 2025
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