दुर्गुणों का भूमंडलीकरण

जब भी मैं देता सरप्राइज
घर पहुंच अचानक लोगों के
वे चकित नहीं होते थे, पर
नाराज बहुत हो जाते थे।
दो-चार दिनों तक बात न हो
मैं हाल-चाल की चिंता में
झट फोन लगा तब लेता था
पर समझ ही नहीं पाता था
खुश होने के बदले में वे
क्यों अक्सर झल्ला जाते थे!
यह बात उन दिनों की है जब
मैं शहर, गांव से नया-नया ही आया था
कह पाने में ‘थैंक्यू’ भी तब सकुचाता था
होकर विनम्र आंखों से ही
आभार प्रकट करने की कोशिश करता था।
उस समय मुझे महसूस हुआ
पॉलिश करके सुंदर दिखना भी
एक कला ही होती है
गांवों में होते लोग खरा सोना
शहरों में मगर सुघड़ता होती है
कितना सुंदर हो दोनों यदि मिल जायें तो
भीतर-बाहर से दमक उठे जीवन सारा!


सपना तो पूरा हुआ
गांव-शहरों का फर्क मिटा, लेकिन
गुण एक-दूसरे का अपनाने की बजाय
दुर्गुण दोनों ने ही इक-दूजे का आखिर क्यों सीख लिया!
जो बन सकता था स्वर्ग, नरक में क्योंकर वह तब्दील हुआ?

रचनाकाल : 19 जनवरी 2025

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