चक्रव्यूह

भागते तेज लोगों को देखा था जब
मैं भी शामिल तो इस दौड़ में हो गया
किंतु महसूस होता है अब जीतकर
रोक पाने की खुद को कला तो अभी सीखना रह गया!
बोझ बढ़ने लगा जब पुराने का तब
तोड़ तो मैंने डालीं सभी रूढ़ियां
जब अराजक बना और निरंकुश हुआ
तब ये जाना नियम तो बनाना नया रह गया!
मैंने मेहनत बहुत की, सफलता मिली
पर न जाने अहंकार कब आ गया
सांझ में जिंदगी की पता ये चला
जो था आरम्भ सुंदर, उसे खत्म गरिमा से करना तो रह ही गया!
मैंने अभिमन्यु की ही तरह घुसने की तो कला सीख ली
किंतु उन्नति के अब इस चरम बिंदु पर
लग रहा है पहुंच कर कहां आ गया
राह दिखती नहीं, मृत्यु के व्यूह में तो नहीं फंस गया!
रचनाकाल : 7-8 जनवरी 2025

Comments

  1. मुझे लगता है इस रचना को और परिमार्जित और संप्रेषणीय बनाने की जरूरत है

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    1. सही कहा हरदहाजी आपने, मुझे भी यह कुछ अधूरी सी लग रही थी. धन्यवाद

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