भूखे पेट की चिंता और भरे पेट के चिंतन का भयावह फर्क
बहुत माह नहीं बीते जब एक बड़े उद्योगपति ने राष्ट्र निर्माण के लिए युवाओं से हफ्ते में 70 घंटे काम करने को कहा था और दूसरे उद्योगपति ने उसका समर्थन किया था. अब तीसरे उद्योगपति के इस बयान से भी वैसी ही बहस छिड़ गई है कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए.
नब्बे घंटे काम करना कोई नई बात नहीं है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन रोज 18 घंटे काम करते थे. कहते हैं पंडित जवाहरलाल नेहरू रात में सिर्फ चार घंटे सोते थे. हिटलर के ‘कांसेंट्रेशन कैम्प’(यातना गृह) में भी बंदियों से रोज 18 घंटे काम करवाया जाता था. समझने वाली बात यह है कि राहुल सांकृत्यायन के 18 घंटे के काम और हिटलर के बंदियों द्वारा 18 घंटे किए जाने वाले काम में फर्क किस बात का था? क्यों राहुल सांकृत्यायन अपने कामों से आज भी अमर हैं और क्यों हिटलर के बंदी कुछ दिनों या कुछ महीनों की मेहनत के बाद ही दम तोड़ देते थे? इसलिए कि सांकृत्यायनजी अपनी मर्जी से मेहनत करते थे और बंदियों से जबरन करवाया जाता था.
एक बार 14-15 साल की एक लड़की एक छोटे लड़के को पीठ पर लाद कर पहाड़ चढ़ रही थी. उससे पूछा गया कि तुम इतना बोझ कैसे उठा लेती हो? तब उस लड़की ने जवाब दिया था कि यह बोझ थोड़े ही है, यह तो मेरा भाई है! काम जब बोझ बन जाए तो आठ घंटे भी आदमी मुश्किल से कर पाता है लेकिन उसे करने में मजा आए तो 18 घंटे में भी थकान नहीं लगती. 12 या 15 घंटे काम की पैरवी करने वालों को क्या यह भी नहीं सुझाना चाहिए कि कर्मचारियों के लिए काम को मजेदार कैसे बनाया जाए?
पिछले कुछ सालों से गुजरात में कुछ ‘जौहरियों’ (उद्योगपतियों) की खबरें हर साल दीपावली पर सुर्खियों में रहती हैं कि उन्होंने अपने कर्मचारियों को कार, फ्लैट, स्वर्णाभूषण या कोई अन्य बेशकीमती चीज बोनस में दी. निश्चित रूप से कुशल कर्मचारी इसके हकदार होते हैं, लेकिन जौहरी अगर ऐसा दिलदार मिले तो अनगढ़ हीरों को भी क्या तराशे जाने में मजा नहीं आएगा!
सरकार भले ही यह दिखाने की कोशिश करे कि वह लोगों का ‘मुफ्त’ में पेट भरने में सक्षम है लेकिन युवाओं को काम की कितनी सख्त जरूरत है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चपरासी के दो-चार रिक्त पदों की भर्ती निकलने पर भी हजारों युवा परीक्षा देने पहुंच जाते हैं. जो कर्मचारी पहले ही 8, 10 या 12 घंटे काम कर रहे हैं, उनसे 15 घंटे काम लेने की बात करना और बाकी लोगों की बड़ी संख्या को बेरोजगार बनाए रखना क्या छलपूर्ण नहीं नजर आता? बेशक, काम की गुणवत्ता मायने रखती है लेकिन अकुशल लोगों को कौशल विकास का प्रशिक्षण देकर उन्हें कुशल भी तो बनाया जा सकता है!
श्याम सुंदर अग्रवाल की एक मार्मिक लघुकथा है ‘मरुस्थल के वासी’, जिसमें नेताजी देशहित में ग्रामीणों से हफ्ते में एक दिन उपवास रखने का आह्वान करते हैं तो लोग उत्साह से कहते हैं कि वे एक तो क्या दो दिन उपवास रखने को तैयार हैं. लेकिन नेताजी जब उनकी देशभक्ति की सराहना करके जाने लगते हैं तो ग्रामीण व्यग्र होकर पूछते हैं कि शेष पांच दिन का राशन उन्हें कौन देगा?
बेरोजगारी की मार झेलते हमारे देश के युवा हफ्ते में 90 तो क्या सौ घंटे भी काम करने को शायद तैयार हो जाएंगे; लेकिन उन्हें काम और सम्मानजनक वेतन की गारंटी देने के लिए कितने उद्योगपति तैयार हैं?
(15 जनवरी 2025 को प्रकाशित)
बहुत ही कम शब्दों में विषय-विशेष पर सबकुछ कह दिया गया सारगर्भित लेख
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