मन का चोर
झूठ बोलने, चोरी करने को मैं भी
सब की ही तरह बुराई माना करता था
पर गलती से दूकानदार कम ले पैसा
तो ध्यान दिलाने की बजाय
खुश होकर खुद को देता था यह तर्क
बेचकर महंगा वह तो पैसा खूब कमाता है!
आदतन झूठ तो नहीं बोलता कभी
मगर जब दिखे फायदा कहीं
बड़ी चतुराई से कर शब्दों का उपयोग
सत्यवादी होने का भरम बनाये रखता था।
इस तरह मुखौटा लगा
आदमी भला स्वयं को बना
हमेशा का रोना यह रोता था
अच्छे लोगों को ही ईश्वर
क्यों कष्ट हमेशा देता है!
दूकानदार को मगर ध्यान जब आया
मन का चोर मेरे पकड़ाया
शब्दों की चतुराई का जब भंडाफोड़ हुआ
शर्मिंदा तब मैं इतना ज्यादा हुआ
मुखौटा हटा, स्वयं को धोखा देना बंद किया
अब सचमुच ही ईमानदार
रहने की कोशिश करता हूं
दु:ख-कष्टों का रोना रोता हूं नहीं
भले बाहर से दिखें समस्याएं
पर सच तो यह है मन अपना
अब इतना निर्मल लगता है
हर हालत में खुश रहता हूं।
रचनाकाल : 21 जनवरी 2025
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