अति सर्वत्र वर्जयेत्‌


तकलीफों से तो घबराता हूं नहीं
मुझे भय इतना ही बस लगता है
अतिरेक दु:खों का हो जाये
तो नहीं सूझता है कुछ भी
पड़ जाता सुन्न दिमाग
नहीं तब कर्मयोग सध पाता है।
लेकिन डर इससे भी ज्यादा
अतिरेक सुखों का हो जाये तो लगता है
दु:ख में तो यूं ही समय व्यर्थ बस जाता है
पर अतिशय सुख में आ न जाय अभिमान
किसी का हो न जाय नुकसान
न बंजर बन जाऊं, डर लगता है।
इसलिये प्रार्थना करता हूं यह ईश्वर से
अतिशय मुझको कुछ मत देना
सुख-दु:ख जो भी देना थोड़ा-थोड़ा देना
मैं एक-एक पग चलकर
कर सकता हूं दुर्गम पर्वत-जंगल पार
बिना सीढ़ी के लेकिन 
चढ़ने या कि उतरने में डर लगता है।
रचनाकाल : 23 जनवरी 2025

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