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Showing posts from December, 2024

नया साल

यूं तो ये साल भी ऐसे ही गुजर जाएगा जैसे बीती हैं जमाने की हजारों सदियां सिलसिला आगे भी ऐसे ही रहेगा जारी किंतु हिस्से में जो आया है नया साल मेरे मुझको जी भर के जरा जश्न मना लेने दो मेरा वादा है कसर कोई नहीं छोड़ूंगा साल का एक भी दिन व्यर्थ नहीं जायेगा गलतियां पहले की कोई नहीं दुहराऊंगा बीती सदियों की सभी भूलों से लेकर के सबक ऐतिहासिक ये नया साल यूं बनाऊंगा जिस पे हो नाज सभी आने वाली नस्लों को मेरा वादा है कभी जिक्र हो इस साल का जब शर्म से सिर मैं किसी का भी न झुकने दूंगा बस मुझे एक दिन खुशियां ये मना लेने दो खूब स्वागत नये इस साल का कर लेने दो। रचनाकाल : 31 दिसंबर 2024

सम्पूर्णता की चाह

जब अनगढ़ था ज्यादा से ज्यादा बन विनम्र अपनी कमियां ढंकने की कोशिश करता था पर जैसे-जैसे प्रौढ़ हुआ, परिपक्व बना घटता ही गया लचीलापन हो गया ठोस, जैसे होता है अहंकार अब टूट भले ही जाऊं लेकिन झुक पाता हूं नहीं सुगढ़ हो चमकदार बन गया मधुरता थी पर जो अनगढ़ता में वह गायब होती गई नियति यह कैसी है जब तक था अनुभवहीन बहुत अनुभव आकर्षित करता था अब होते ही अनुभवी जोश, उत्साह की कमी खलती  है! रचनाकाल : 29 दिसंबर 2024

अग्निपरीक्षा में जलता है कचरा और दमकता है कुंदन

 पुरानी कहानी है कि ईश्वर से एक किसान का दु:ख देखा नहीं गया और प्रगट होकर उससे वरदान मांगने को कहा. मौसमों की मार से त्रस्त उस किसान ने मांगा कि न तो अतिशय ठंडी पड़े न गर्मी, न सूखा आए न बाढ़. मौसम हमेशा सुहावना बना रहे, जिससे फसल अच्छी हो. भगवान ने तथास्तु कहा और उस साल ऐसी फसल लहलहाई जैसी पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. किसान की खुशी का पारावार नहीं था. लेकिन जब फसल पकी तो उसने देखा कि बालियों में दाने ही नहीं थे! और तब किसान ने फिर से ईश्वर को याद किया तो उन्होंने बताया कि अनुकूल मौसम से फसल लहलहा सकती है लेकिन वह उपजाऊ तो विपरीत मौसमों को झेलकर ही बनती है.   वर्ष 2009 में सरकार से भी छात्रों का दु:ख देखा नहीं गया था और उसने ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ के अंतर्गत आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को परीक्षा से भयमुक्त कर दिया अर्थात वे परीक्षा में पास हुए बिना भी अगली कक्षा में प्रमोट हो सकते थे. लेकिन परीक्षा कोई आसमान से टपकी वस्तु तो है नहीं, वह तो विद्यार्थी द्वारा साल भर की गई मेहनत का मूल्यांकन मात्र है. और स्व-अनुशासन तो कई बार हम बड़ों के भीतर भी नहीं आता, फिर बच्चों से कैसे ...

भूख का सच

जब तुलना करते लोग शहर की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के लोग बहुत ही ज्यादा भुक्खड़ होते हैं शादी-ब्याहों में रखें बुफे का सिस्टम तो खाने पर मरभुक्खों की तरह टूटते हैं मैं शर्मिंदा हो जाता हूं यह नहीं बता पाता हूं उनको सच्चाई करके भी वे दिन-रात परिश्रम घोर कभी भरपेट नहीं खा पाते हैं यह भूख नहीं है दिनों-महीनों की यह तो सदियों की है। कुछ लोग दिया करते हैं जब घर की महिलाओं को ताना वे छुपकर खाना खाती हैं मैं लज्जा से गड़ जाता हूं यह नहीं उन्हें समझा पाता जो जितनी मेहनत करता है उतनी ही भूख भी लगती है हम इतने हैं नासमझ कि ज्यादा खाता जो, वह दिखता है पर नहीं भूख के पीछे का सच दिखता है! कब दिन वह ऐसा आयेगा जब मेहनत करने वालों को भरपेट मिल सकेगा खाना होना न पड़ेगा शर्मिंदा सुनना न पड़ेगा यह ताना यह कितना खाना खाता है! रचनाकाल : 19 दिसंबर 2024

भ्रष्ट तत्वों से सहानुभूति और गांधीजी के सपनों का लोकतंत्र

 ‘ले, पीछे ले...जल्दी...’ पीछे वाले बाइक सवार कहते हैं, लेकिन नेशनल हाइवे के एक सिग्नल पर रुका हुआ, बिना हेलमेट का वह ट्रिपल सीट बाइक सवार ट्रैफिक में इस तरह फंस चुका है कि सामने से आते ट्रैफिक पुलिसकर्मी को देखकर भी कुछ नहीं कर सकता. आजू-बाजू के गाड़ी वाले सहानुभूति जताते हुए कहते हैं कि बीच में गाड़ी डालना ही क्यों था! लेकिन उसका हश्र देख पीछे के बिना हेलमेटवाले चालक अपनी गाड़ी पलटा लेते हैं. रांग साइड से उन्हें लौटते देख, सही दिशा से आने वाले बिना हेलमेटधारी चालक उनसे  अपनत्व भाव से पूछते हैं, ‘आगे है क्या?’ ...और वह सहोदर की तरह उनसे कहते हैं, ‘गाड़ी पलटा ले...’ दृश्य बदलता है. सिटी बस में कंडक्टर टिकट देने में जानबूझकर देरी करता है तो कुछ यात्री आवाज लगाते हैं. वह थोड़ी देर सब्र करने का इशारा करता है. मोबाइल उसके कान में लगा है और वह किसी के (शायद दूसरी बसों के कंडक्टरों के!) संपर्क में बना हुआ है, यह जानने के लिए कि चेकर इस समय कहां हैं! जिस जगह उनके होने की सूचना मिलती है, उससे ठीक एक स्टॉप पहले वह यात्रियों को टिकट देकर बाकी पैसे अपनी निजी जेब के हवाले करता है और यात्र...

काल करे सो आज कर

बचपन में था मैं तेज बहुत पढ़ने में लेकिन आया फिर ऐसा भी एक समय कि समझ में आती नहीं गणित थी बचने खातिर उससे, जबरन खुद को खेलकूद में भरमाये रखने की कोशिश करता था। उस चक्कर में कई साल गंवा डाले थे मैंने यूं ही तब से आती है कोई भी बड़ी समस्या उससे कतराने की जगह हमेशा टकराने की ही कोशिश मैं करता हूं यह समझ गया हूं जितना ज्यादा भागूंगा उतना ही वह नुकसान मुझे पहुंचाएगी। दरअसल मूंद कर आंख जिस तरह शुतुरमुर्ग खुद को धोखा देने की कोशिश करता है हम भी जीवन की जटिल गुत्थियों से बचने की कोशिश में उनको अधिकाधिक जटिल बनाते जाते हैं संकट जब नन्हें पौधे जैसा होता है आसानी से उसको उखाड़ सकते हैं, पर जब अनदेखा करने की कोशिश करते हैं  वह धीरे-धीरे वृक्ष बड़ा बन जाता है। रचनाकाल : 3 दिसंबर 2024

मरुस्थल में जीवन

जब तन-मन रहता स्वस्थ तभी दु:ख-कष्ट सहन कर पाता हूं दु:ख सहते ही तन-मन से लेकिन जर्जर होता जाता हूं! यह सच है रेगिस्तानों में बस नागफनी ही उगती है पर सहकर भी घनघोर कष्ट मैं नहीं चाहता हूं कि कभी भी बच पाने की खातिर कांटेदार बनूं। अस्तित्व स्वयं का लेकिन कायम रखने को जब यही विकल्प बचे अंतिम तब बहुत कठिन हो जाता है कोई भी निर्णय ले पाना। बलिदान स्वयं का कर पाना होता तो है आसान नहीं पर बनकर शुष्क-कठोर जिंदगी जीने का भी क्या तुक है? रचनाकाल : 2 दिसंबर 2024

भीख को पेशा बनाते गिरोह और मर्ज के बजाय लक्षण मिटाने की कोशिश

समय बदलने के साथ-साथ समाज के कई रिवाज भी बदलते जाते हैं और कभी-कभी तो इतना बदल जाते हैं कि पैर के बल खड़ी चीजें सिर के बल खड़ी नजर आने लगती हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण इंदौर प्रशासन का नया फरमान है, जिसके अनुसार आगामी एक जनवरी से वहां अगर कोई व्यक्ति भीख देते हुए पाया गया तो उसके खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की जाएगी. एफआईआर अर्थात आपका अपराध गंभीर है और इसके लिए आपको गिरफ्तार भी किया जा सकता है. बहुत दिन नहीं बीते जब भीख देना पुण्य का कार्य समझा जाता था. तीर्थस्थानों में तो आज भी भिखारियों की लम्बी कतार देखी जा सकती है.  ‘भिखारी’ शब्द से हमारी कल्पना में जो तस्वीर बनती है, वह अपंग या अत्यंत बुजुर्ग व्यक्ति की होती है, जो शारीरिक परिश्रम के बल पर अपनी आजीविका जुटाने में अक्षम हो. भीख मांगने को हमारे समाज में कभी भी सम्मान की नजर से नहीं देखा गया, इसे विवशता का कार्य ही माना गया है. लेकिन कालांतर में यह पेशा शायद इतना फायदे का सौदा बन गया कि बड़े-बड़े गिरोह इसमें शामिल हो गए! इंदौर का ही उदाहरण लें तो वहां के एक शीर्ष अधिकारी के अनुसार प्रशासन ने गुजरे महीनों के दौरान भीख मंगवाने वाले ...

अनसोशल बनाती सोशल साइट्‌स से बचपन को बचाने की चुनौती

 ऑस्ट्रेलियाई संसद ने सोलह वर्ष तक के बच्चों को कथित सोशल मीडिया/साइट्‌स से दूर रखने वाला अपना बहुचर्चित विधेयक पारित कर दिया है. विशेष बात यह है कि इसके पालन की जिम्मेदारी सोशल कही जाने वाली साइट्‌स पर ही डाली गई है अर्थात किसी बच्चे ने अगर इन पर अपना अकाउंट बना लिया तो इन कंपनियों को सैकड़ों करोड़ रुपए का जुर्माना भरना होगा. ऑस्ट्रेलिया अकेला नहीं है, बहुत सारे देशों ने इस तरह का प्रतिबंध लगा रखा है, लेकिन इतना सख्त आर्थिक दंड लगाने वाला वह पहला देश है. देखना दिलचस्प होगा कि इसके नतीजे क्या निकलते हैं. यह विडम्बना ही है कि जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं, उसने हमें अनसोशल ही बनाया है. सुदूर बैठे लोगों से हम आभासी तौर पर जुड़ जाते हैं लेकिन निकट के लोगों से वास्तविक दूरी पैदा हो जाती है.  हममें से अधिकांश लोग इस गलतफहमी में होते हैं कि बच्चों को हम जो सिखाते हैं, वे वही सीखते हैं; जबकि हकीकत यह है कि वे हमारे क्रियाकलापों का अनुकरण करते हैं. इसलिये कथित सोशल मीडिया से बच्चों को दूर करने से पहले क्या हम बड़ों को ही इससे दूर नहीं होना चाहिए? अगर हमें पता है कि सोशल के मुखौटे में य...

कर्मयोग

सुख-दु:ख तो आते-जाते हैं सिक्के के वे दो पहलू हैं दिन-रात सरीखे होते हैं इसलिए नहीं यह ख्वाहिश है शिखरों पर हरदम बना रहूं गुमनामी की गहरी खाई से भी भयभीत नहीं होता बस इतना ही भय लगता है होकर निराश नाकामी से कोशिश में आये कमी नहीं जिस तरह फोड़ कर धरती को जड़ गहरी बीज जमाता है तब जाकर कोई पेड़ गगनचुम्बी ऊंचाई पाता है वैसे ही असफलताओं पर निर्भर रहती हैं सफलताएं जो कभी हारता नहीं जीत भी कभी नहीं वह पाता है। इसलिये हताशा से बचने को अनासक्ति अपनाता हूं हों अच्छे दिन या बुरे सदा निष्काम भाव से कठिन परिश्रम करता हूं फल चाहे जो भी मिले मुझे खुश हर हालत में रहता हूं। रचनाकाल : 1 दिसंबर 2024

दु:ख-कष्टों का सुख

लोग कहते हैं बात यह अक्सर फूलते-फलते खूब अन्यायी जो भी चलता है सत्य के पथ पर झेलता कष्ट-दु:ख बहुत सारे क्या यही है विधान ईश्वर का है वो सचमुच ही इतना अन्यायी? सत्य की राह में दृढ़ रहने को दु:ख सहा राजा हरिश्चंद्र ने जो एक वनवास झेल करके भी फिर से सीता ने सहा निर्वासन जिनको कहते मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मन पे क्या बीती होगी क्या यही नियति सत्‌-जनों की है? किंतु तपकर ही आग में जैसे सोना पूरी तरह निखरता है कष्ट-दु:ख मांजते मनुष्यों को रहते सिद्धांत पर अडिग जो भी याद इतिहास उन्हें रखता है झेलना कष्ट सत्य की खातिर मन को आनंद परम देता है हो न जीवन में कोई मकसद तो सुख भी आखिर दु:खी ही करता है! रचनाकाल : 27-28 नवंबर 2024