भूख का सच
जब तुलना करते लोग शहर की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के लोग बहुत ही ज्यादा भुक्खड़ होते हैं शादी-ब्याहों में रखें बुफे का सिस्टम तो खाने पर मरभुक्खों की तरह टूटते हैं मैं शर्मिंदा हो जाता हूं यह नहीं बता पाता हूं उनको सच्चाई करके भी वे दिन-रात परिश्रम घोर कभी भरपेट नहीं खा पाते हैं यह भूख नहीं है दिनों-महीनों की यह तो सदियों की है। कुछ लोग दिया करते हैं जब घर की महिलाओं को ताना वे छुपकर खाना खाती हैं मैं लज्जा से गड़ जाता हूं यह नहीं उन्हें समझा पाता जो जितनी मेहनत करता है उतनी ही भूख भी लगती है हम इतने हैं नासमझ कि ज्यादा खाता जो, वह दिखता है पर नहीं भूख के पीछे का सच दिखता है! कब दिन वह ऐसा आयेगा जब मेहनत करने वालों को भरपेट मिल सकेगा खाना होना न पड़ेगा शर्मिंदा सुनना न पड़ेगा यह ताना यह कितना खाना खाता है! रचनाकाल : 19 दिसंबर 2024