भ्रष्ट तत्वों से सहानुभूति और गांधीजी के सपनों का लोकतंत्र

 ‘ले, पीछे ले...जल्दी...’ पीछे वाले बाइक सवार कहते हैं, लेकिन नेशनल हाइवे के एक सिग्नल पर रुका हुआ, बिना हेलमेट का वह ट्रिपल सीट बाइक सवार ट्रैफिक में इस तरह फंस चुका है कि सामने से आते ट्रैफिक पुलिसकर्मी को देखकर भी कुछ नहीं कर सकता. आजू-बाजू के गाड़ी वाले सहानुभूति जताते हुए कहते हैं कि बीच में गाड़ी डालना ही क्यों था! लेकिन उसका हश्र देख पीछे के बिना हेलमेटवाले चालक अपनी गाड़ी पलटा लेते हैं. रांग साइड से उन्हें लौटते देख, सही दिशा से आने वाले बिना हेलमेटधारी चालक उनसे  अपनत्व भाव से पूछते हैं, ‘आगे है क्या?’ ...और वह सहोदर की तरह उनसे कहते हैं, ‘गाड़ी पलटा ले...’

दृश्य बदलता है. सिटी बस में कंडक्टर टिकट देने में जानबूझकर देरी करता है तो कुछ यात्री आवाज लगाते हैं. वह थोड़ी देर सब्र करने का इशारा करता है. मोबाइल उसके कान में लगा है और वह किसी के (शायद दूसरी बसों के कंडक्टरों के!) संपर्क में बना हुआ है, यह जानने के लिए कि चेकर इस समय कहां हैं! जिस जगह उनके होने की सूचना मिलती है, उससे ठीक एक स्टॉप पहले वह यात्रियों को टिकट देकर बाकी पैसे अपनी निजी जेब के हवाले करता है और यात्रियों से अपनत्व भाव से फुसफुसाते हुए कहता है कि चेकर से बताना इसी स्टॉप से चढ़े हैं. चेकर आते हैं और यात्री सिखाया हुआ जवाब दे देते हैं. 

एक और दृश्य है. आंदोलनकारियों की भीड़ जमा है और किसी भी अनहोनी को रोकने के लिए पुलिसकर्मी तैनात हैं. अचानक ही माहौल बेकाबू हो जाता है. पुलिसकर्मी स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं लेकिन भीड़ पथराव करने लगती है, सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फोड़ करने 

लगती है. 

वे दिन अब किस्से-कहानियों में ही हैं, जब देश में अंग्रेजों का राज था. आजादी मिले पचहत्तर साल से अधिक बीत चुके हैं. देश में अब लोकतंत्र है; जनता का तंत्र. पर यह कैसी जनता है जो ट्रैफिक संभालनेवालों के बजाय तोड़नेवालों से सहानुभूति रखती है, चेकर की बजाय भ्रष्ट कंडक्टर का साथ देती है, पुलिस को अपना दुश्मन समझती है और सार्वजनिक संपत्ति को सरकार की मानकर नुकसान पहुंचाती है? लड़े तो गांधीजी भी जनता का तंत्र लाने के लिए ही थे, पर उनके सपनों का जनतंत्र क्या यही था? सत्य, अहिंसा जैसे उनके हथियारों को छोड़कर सबने अंग्रेजों का तरीका कैसे अपना लिया! महात्मा गांधी तो मजबूती का नाम था, हमने उसे ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ में कैसे बदल दिया? हम क्यों उन्हें तभी तक याद रखना चाहते हैं जब तक उनसे हमारा स्वार्थ सधे? 

पचहत्तर वर्षों बाद भी क्या हमें लोकतंत्र की परीक्षा में पास होना अभी बाकी है? 

(19 दिसंबर 2024 को प्रकाशित)

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