भीख को पेशा बनाते गिरोह और मर्ज के बजाय लक्षण मिटाने की कोशिश

समय बदलने के साथ-साथ समाज के कई रिवाज भी बदलते जाते हैं और कभी-कभी तो इतना बदल जाते हैं कि पैर के बल खड़ी चीजें सिर के बल खड़ी नजर आने लगती हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण इंदौर प्रशासन का नया फरमान है, जिसके अनुसार आगामी एक जनवरी से वहां अगर कोई व्यक्ति भीख देते हुए पाया गया तो उसके खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की जाएगी. एफआईआर अर्थात आपका अपराध गंभीर है और इसके लिए आपको गिरफ्तार भी किया जा सकता है. बहुत दिन नहीं बीते जब भीख देना पुण्य का कार्य समझा जाता था. तीर्थस्थानों में तो आज भी भिखारियों की लम्बी कतार देखी जा सकती है. 

‘भिखारी’ शब्द से हमारी कल्पना में जो तस्वीर बनती है, वह अपंग या अत्यंत बुजुर्ग व्यक्ति की होती है, जो शारीरिक परिश्रम के बल पर अपनी आजीविका जुटाने में अक्षम हो. भीख मांगने को हमारे समाज में कभी भी सम्मान की नजर से नहीं देखा गया, इसे विवशता का कार्य ही माना गया है. लेकिन कालांतर में यह पेशा शायद इतना फायदे का सौदा बन गया कि बड़े-बड़े गिरोह इसमें शामिल हो गए! इंदौर का ही उदाहरण लें तो वहां के एक शीर्ष अधिकारी के अनुसार प्रशासन ने गुजरे महीनों के दौरान भीख मंगवाने वाले अलग-अलग गिरोहों का खुलासा किया है. क्या ये गिरोह इतने ताकतवर बन गए हैं कि प्रशासन को इनसे निपटने के लिए भिक्षा देने वालों पर एफआईआर दर्ज करने की चेतावनी का सहारा लेना पड़ रहा है? 

भिखारियों का होना किसी भी समाज पर एक कलंक के समान है. शायद इसीलिए केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने देश के दस शहरों को भिक्षुकमुक्त बनाए जाने की प्रायोगिक (पायलट) परियोजना शुरू की है, जिनमें इंदौर भी शामिल है. लेकिन भिक्षा देने वालों पर एफआईआर दर्ज करना ही क्या भिक्षुकमुक्त समाज बनाने का सही तरीका है? इसी तर्क को आगे बढ़ाएं तो गरीबी भी किसी समाज के लिए अभिशाप के समान होती है; लेकिन गरीबों की मदद को जुर्म बनाए जाने से तो गरीबी दूर नहीं की जा सकती! यह सच है कि भिखारियों के वेश में आज आपराधिक गिरोहों ने इस पेशे पर कब्जा कर लिया है और वे भिखारियों के प्रति लोगों की दया भावना का फायदा उठाते हैं. लेकिन लोगों की दया भावना को खत्म करना ही क्या इस समस्या से निपटने का सही उपाय है? होना तो यह चाहिए कि जो वास्तविक भिखारी हैं, प्रशासन उनका पुनर्वास कराए और इस पेशे में शामिल आपराधिक गिरोहों का भंडाफोड़ कर उन्हें जेल में डाले. लेकिन एफआईआर का डर दिखाकर प्रशासन भिक्षुकमुक्त समाज बनाने की जिम्मेदारी आम नागरिकों पर ही डाल देता है और स्वयं सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है. क्या यह रोग का वास्तविक इलाज करने की बजाय उसके लक्षणों को ही मिटाने की कोशिश के समान नहीं है?

अप्रकाशित

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